संवेदनाएँ …
संवेदनाएँ सोती जा रही हैं!
न जाने कहाँ गुम होती जा रही हैं?
ये शोर कहां का हैं?
कैसा है?
शायद इसका निवासस्थल हमारा अंतर्मन है!
जो हमें भीड़-भाड़ में भी अकेला कर दिया है!
जो हमारे आसपास घटित घटनाक्रमों से,
राग-द्वेष से,हर्ष-विषाद से,
भावनाओं के उठापटक से,
एकदम भिन्न कर दिया है!
जो हमारे अंतर जगत को,
हमारी ही संसार से टूटने तक का
इल्म नहीं होने दे रहा है….
हमें जड़वत संसार की ओर अग्रसर कर रहा हैं!
जहां हम एकाकी जीवन जीने को बाध्य होगें!
पर आज हम अकेले होकर भी,
नहीं हो रहे हैं!
मनःजगत में न जाने ये कैसा शोर है?
जो अस्थिर करे रखता है हमारे वजूद तक को!
आत्मा की पुकार,चाहत और अर्जी तक नहीं सुन पा रहे हैं हम!
पता नहीं किस सुरूर में जी रहे हैं हम!
हंसी,खिलखिलाहट,ठहाकेे सब गुम होते जा रहे हैं!
अश्रुपूरित नेत्र से अनजान होते जा रहे हैं !
बस “मशीन” होने के क्रम में!
प्रस्तुत हम सभी……
©अल्पना सिंह, शिक्षिका, कोलकाता