लेखक की कलम से

दोस्ती हो चंगी, अर्थव्यवस्था में भले हो मंदी …

व्यंग्य

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और ट्रम्प सरकार के बढ़ते दोस्ती के धागे को अगर पकड़ा जाए और बसन्त के मौसम में पतंगबाजी के दौरान पतंग हवा में लहरा भी रही हो तो इसका ये मतलब नहीं कि आपको पतंगबाजी आती है ! कई दफ़ा ऊंची-ऊंची ऊंचाइयों पर जब पतंग कट जाती है या कट जाए तो निराशा मिलना लाज़मी है।

अगर अपने देश भारत की स्थिति पर एक नजर डाली जाए तो आपको अहसास होगा कि घर चलाना आज उतना ही कठिन है जितना की बहते पानी में रेत को रोकना। अगर घर के हालातों पर एक नजर डाली जाए तो क्या मिलता है ? एक घर जहां पहले से ही बेरोजगारी इतनी है कि ख़ुद का जीवनयापन करना भारी पड़ रहा है और ऊपर से मेहमानों को दावत पर बुलाया जाए तो इसका भला उन घर में रह रहे परिजनों पर क्या गुज़रेगी ये शायद सोच भी नहीं सकते ?

और दूसरी तरफ़ ध्यान देने योग्य बात ये है कि अन्य घरों को भी आप भंडारे में आमंत्रित कर रहे हैं। माना सामाजिकता इससे आपकी यानि कि भारत की काफ़ी हद तक मज़बूती के दौर में पहुँच जाएगी किंतु घर को नीलाम करके या फिर अपने बच्चों के भविष्य की बलि चढ़ाकर इस सामाजिकता को स्वीकारना किसी भी रूप में उचित नहीं ठहराया जा सकता।

मुझे लगता है कि हमें इतना क़ाबिल और मजबूत बनना चाहिए कि अपने घर के परिजन अगर सक्षम हैं तो दोस्ती का हाँथ बढ़ाना और भंडारा करना सौभाग्य की बात है।

©इंजी. गौरव शुक्ला, इलाहाबाद, यूपी

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