लेखक की कलम से

मैं मृदा हूं …

 

मैं मृदा हूं,
पल-पल जाती हूं रौंदी,
कभी किसान के हल से,
कभी कुम्हार के पैरों से,
फिर भी मुस्कुराती हूं,
क्योंकि मैं मृदा हूं।

पल-पल जाती हूं रौंदी,
किसान के हल से,
उगाती हूं अन्न खेतों में,
करती हूं पोषण जन-जन का,
उगाती हूं पेड़-पौधे,
बेलें, दरख़्त और फूल,
क्योंकि मैं मृदा हूं।

पल-पल जाती हूं रौंदी,
कुम्हार के पैरों से,
मिट्टी के लौंदे के रूप में,
नाचती हूं कुम्हार के चाक पर,
ले लेती हूं रूप एक नया,
सुंदर मिट्टी के कलश का,
बुझाती हूं शीतल जल से,
प्यास जन-जन की,
क्योंकि मैं मृदा हूं।

सहती हूं खोदना, पीटना, रौंदना,
जीव-जंतु, पक्षी,मानव के मल-मूत्र को,
संजोती हूं अपने आंचल में,
अपना अस्तित्व देकर,
कर देती हूं नव निर्माण,
क्योंकि मैं मृदा हूं।

उगाती ढेरों जड़ी-बूटियां,
वृक्ष, फल और औषधियां,
कंद और मूल,
देती हूं मानव को नवजीवन,
क्योंकि मैं मृदा हूं।

ना डरती हूं मेघों के गरजने से,
ना डरती हूं मेघों के बरसने से,
ना आंधी से, ना तूफान से,
ना हिम के वज्रपात से,
क्योंकि मैं मृदा हूं।

ना बिजलियों के कड़कने से,
ना बाढ़ से, ना भूचाल से,
ना नदियों के जलप्रपात से,
मानती हूं अपना सौभाग्य,
धुल जाती हूं, हो जाती हूं नई,
क्योंकि मैं मृदा हूं।

झूमती हूं, मुस्कुराती हूं,
हो जाती हूं पवित्र,
सज-संवर जाती हूं,
नई नवेली दुल्हन की तरह,
नई ऊर्जा से, नई उर्वरा से,
मैं मृदा हूं करती हूं सृजन फिर से,
क्योंकि मैं मृदा हूं।

©लक्ष्मी कल्याण डमाना, नई दिल्ली        

Back to top button