लेखक की कलम से
ये बंद दरवाजे …
कहूँ क्या ऐ पिता तुमसे मुझे स्कूल भाता है
नहीं मिलता है जाने को बुलाती मुझको शाला है।
है कबसे बंद दरवाजे न मैडम है न सर दिखते
जुलाई का महीना है मेरा मन भीग जाता है
नकल किसकी उतारूँ मैं नही है क्लास और टीचर
न चुपके से मेरे इक दोस्त ने मुझको बुलाया है।
चुराऊँ आँख किससे अब सबक जब है नही पूरा
उसी डंडे की याद आये हथेली ने पुकारा है।
पहन स्कूल के कपड़े नए जूते नया बस्ता
वो मंज़र याद आता है मुझे स्कूल जाना है।
वही स्कूल का मैदान वो खो -खो कबड्डी वो
है छीना सब कोरोना ने सभी कुछ तो बिगाड़ा है।
बड़ा पछता रहा है जी न कतराऊँ पढ़ाई से
पिता माता औ टीचर ने ही तो हमको सँवारा है।
©किरण सिंह शिल्पी, पांडवनगर, शहडोल, मप्र