लेखक की कलम से
प्रेम है सृजन का आधार ….
सृजन का आधार है ये प्रीत का व्यवहार,
चरम के उत्कर्ष में भी है महज बस प्यार।
पुष्प बनके खिला है जो खुशबुओं में नेह,
इश्क ही तो दीखता बन मौसम-ए-बहार।
रूप सौंदर्य से लसित हैं ये मुदित से चेहरे,
हुस्न की यों अदा में है एक प्रेम की पुकार।
थाल पूजा के सजाके जो गा रहा हर मन,
आरती के रूप में है यहां प्रीत ही सुकुमार।
पल्लवित होते जो सपनें दिलों में दिन रात,
प्रेम ही तो प्रिय से भी करता है आंखें चार।
बदन की ये तपन पे जो नेह की वर्षा दिखे,
प्रेम ही तो बरसता है बन के सजल फुहार।
©संजय कुमार भारद्वाज, चंपावत, उत्तराखंड