लेखक की कलम से

खुशबू …

 

कुछ घबराई, कुछ डरी हुई

ढेरों सपने डबडबाई आंखों में संजोए,

वो महकती है हाथों की मेहंदी की खुशबू से,

तन की हल्दी चन्दन की खुशबू से,

आती है वो पायल छनकाती

जरा संभलती, संभालती कदमों से…..

 

सास ससुर, ननद देवर में

माता-पिता, बहन भाई को ढूंढती नजरें,

पति को सर्वस्व मानकर लजाती, झुक जाती नजरें,

अरे! जाने-पहचाने से सब..

वो परदें और खिड़कियां,

मां के जैसी सासू मां की झिड़कियां।

वही रसोई वही दीवारें, छत, आंगन,

यहीं दिवाली, दशहरा और फागन।

वो घर-आंगन महकाती है,

महकती अपनेपन की खुशबू से……

 

देखो न!

एक नन्ही कली कहीं चटकी है

बड़ी बड़ी आंखें,

नन्हें से लड़खड़ाते कदम

बाबा की गुड़िया और

उसकी ही परछाई है वो,

खुद फिर से बन जाती है बच्ची,

जी लेती है बचपन को।

नन्ही सी बिटिया की आंखों में

देखती है फिर से सपने,

भर जाता है तन-मन

स्फूर्ति और साहस से,

महकती है वो

ममत्व की खुशबू से…….

 

और बीत जाते दिन, महीने, साल

आंगन में बैठी

रंगोली में रंग भरते,

गलाती है खुद को बूंद-बूंद मोम की तरह,

सबके चेहरों पर मुस्कान भरते।

कभी तारीफें, कभी ताने आंचल में भरते,

अहा! कब मेहंदी के रंग उड़ गए

वो आंखों के काजल धूल गए

बन जाती है सादगी की मुरत

महकती है वो

त्याग की खुशबू से……

 

न परवाह साज सिंगार की,

इत्र के बदले महकती है वो

हल्दी, धनिया, मसाले की खुशबू से।

बेटी, बहु, पत्नी, मां के बीच

खुद को खोजती,

पा लेती है खुद को बेटी के चेहरे पर खिले मुस्कान में,

बड़ों के आशीष में, पति के प्रेम में।

जलती है वो सांझ बाती बनकर,

महकती है वोआंगन की तुलसी बनकर।

परिवार की खुशहाली में

महकती है वो

त्याग, ममता, समर्पण कि खुशबू से…….!

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