अब वक्त अपना नहीं
जो धरती को पकड़े रखते थे हाथों की मानिन्द कभी
उम्र के धक्के से
फिसलने लगे हैं वे पैर।
टूटने लगे हैं अस्थि-पिंजर
जो रखते थे
लोहे की सलाखों को भी
तोड़ने की हिम्मत।
किसी ने कहा- “वक्त बदल गया”
किसी ने कहा- “अब वक्त अपना नहीं”
किसी ने कहा- “वक्त साथ छोड़ रहा”
किसी ने कहा- “वक्त हमें सिखा रहा”
तो किसी ने कहा- “वक्त बुरा है।“
ठहरा रहे थे वक्त को ही दोषी सब
पर…
कोई तो बताए कि
हर किसी के हिस्से में है
एक निश्चित वक्त।
बुजुर्गों का कहना है कि
मौत एकदम से नहीं आती
वह सरकती हुई आती है जैसे सरकती है नदी के पास की जमीन।
संक्षिप्त परिचय- “उम्मीद” कला एवं सृजन को समर्पित संस्था का अध्यक्ष। कवि, आलोचक एवं कथाकार। विभिन्न राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी में शोध पत्र वाचन एवं शोध पत्र प्रकाशित। अब तक तीन पुस्तकों का प्रकाशन एवं दो पुस्तकें प्रकाशन हेतु स्वीकृत। देश-विदेश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में आलेख, कविता, निबंध, कहानी एवं आलोचना प्रकाशित। विभिन्न प्रतियोगी कार्यक्रमों में निर्णायक के रूप में भागीदारी। लेखन से संबंधित दो पुरस्कारों की प्राप्ति। पूर्व निदेशक डॉ अंबेडकर स्टडी सेंटर, एस. जी.जी. एस. खालसा कॉलेज, माहिलपुर, पंजाब।