लेखक की कलम से

रिश्तों की डोर……

रिश्तों की डोर दोनो ओर से मजबूत होनी चाहिए,जितने ज़्यादा रिश्तें उतनी डोर झुकेगी,रिश्तों की गति मद्धम होनी चाहिए,fast नही, slow रखिए ज़रा,गर्माहट की तपिश स्निग्ध हो,पकड़ कोजी हो,चाश्नी कम,कड़वाहट मनमोहक, याने संतुलन ज़रूरी।
बांधिए भी उतना की घुटन न हो,पकड़िए भी नरमी से,की जब हाथ छूटे तो खरोंच न आए, लहूलुहान रिश्तें ठीक होते हैं पर पपड़ी एक निशान छोड़ देती हैं, और बरबस निगाहें उस दाग में उलझ कई प्रश्न चिन्ह छोड़ देती हैं।

अप्रत्याशित सवाल के जवाब नही मिलते तब,बस तब उंगली अगले की तरफ़, और बाकी चार अपनी तरफ़ उठती हैं जो घातक हैं।

मसले बड़े हो या छोटे आपसी बातों से समझदारी से सुलझाए जाते हैं, पहले सुनने की आदत डालें,गौर से सुनें फिऱ आप अपनी राय दें ,,होता क्या है कि हम तैश में होते हैं तो ज़ेहन में
सिर्फ़ और सिर्फ़ नकारात्मकता ही विराजमान होती है ,ज़ाहिर सी बात है और सर्वविदित की आक्रोश और नकारात्मक सोच का अंत अक्सर अफसोस जनक ही होता है।

, गुस्से में हो या गलतफहमी में थोड़ा रुकें, समय दे ख़ुद को और दूसरे को तब आगे निर्णय ले,आवेश में कोई निर्णय न लें और न ही संवाद करें, क्योंकि गुस्से से निकले शब्द अभद्र और विषाक्त होते हैं।

कहते हैं कि शब्दों के बाण ह्रदय भेदते हैं, तो बोलने से पहले रुके, क्योंकि एक क्षण की असहनशीलता आपके बरसो के बंधे रिश्तें पलभर में ख़त्म कर देते हैं।

माँ कहती हैं इंसान वाणी से ही नज़रो में उतरता हैं और वाणी से नज़रो से उतर भी जाता है।
और यह तब और ज़रूरी हो जाता है जब हम कलम हाथ मे थामें होते हैं, शब्दसारथी हैं तो कलम भी शालीन और सौम्य के साथ मार्गदर्शक हो। तो उपर्युक्त बातों पर अमल ज़रूर करें।

©सुरेखा अग्रवाल, लखनऊ

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