लेखक की कलम से

महाकवि होने की कगार पर …

(व्यंग्य )

महाकवि कालिदास, महाकवि सूरदास, महाकवि तुलसीदास को अपने महाकवि होने पर शक होने लगा है। क्योंकि अब महाकवि की परिभाषा बदल गई है। जिन्हें यह भी नहीं पता कि कविता गद्य में होती है या पद्य में। वे महान कवि हैं। जो दूसरों की कविताएँ चुरा कर, उन्हें तोड़ -मरोड़ कर अपनी कहते हैं। वे महाकवि हैं। अच्छी कविता लिखना अब कवि होने का पैमाना नहीं है। कविता कैसी भी लिखो। मगर समाज में प्रसिद्ध होने का आर्ट आना चाहिए। दूसरों से काम निकलवाने का आर्ट आना चाहिए। झूठी वाह -वाही कर कविता में भ्रम फैलाना आना चाहिए। दूसरों के पैसे से बंदर नचवाना आना चाहिए। सच। महाकवि होना कितना मुश्किल हो गया है। तुम क्या जानो कवि बाबू!

मेरी एक मित्र कवि हैं। अच्छी कविता लिखतीं हैं। आलोचनात्मक कार्य उम्दा करतीं हैं। उन्होंने फ़ोन कर पूछा -“यह जो शहर में गोष्ठियाँ हो रहीं हैं। क्या तुम नहीं जातीं ?”

मैंने कहा -“नहीं! वहाँ चुनिंदा लोगों को बुलाया जाता है। ”

उसने पूछा -“ये चुनिंदा लोग कौन हैं? क्या हैं?”

मैंने कहा -“ये चुनिंदा लोग या तो महाकवि हैं या महाकवि होने की कगार पर हैं। चुनिंदा होने के लिए तुम्हारा या तुम्हारे पति का किसी संस्था का अध्यक्ष होना ज़रूरी है। या तुम्हारे पास इतना पैसा हो कि तुम संस्था ख़रीद सको। या तुम किसी प्रतिष्ठित पद पर हो। रिटायर्ड अफ़सर हो तो भी चलेगा। या किसी ऐसे को बुलाया जाता है जिसमें उन्हें महाकवि होने की सम्पूर्ण संभावनाएँ दिखाई दें। “

उसने उदास आवाज़ में कहा -“हम इतने खुशनसीब कहाँ ?”

मैंने सांत्वना दी -“कोई बात नहीं हम बदनसीबों के कारण ही साहित्य ज़िंदा रहेगा। वरना ये महाकवि तो हररोज़ कविता की हत्या करेंगे।”

वह ज्ञान सुनने के मूड में नहीं थी शायद। उसने अच्छा कह कर फ़ोन काट दिया।

मित्रता वश पिछले दिनों एक पुस्तक समारोह में गईं। कार्यक्रम करवाने वाले भी मित्र, करने वाले भी मित्र, संचालक भी मित्र, श्रोता भी काफ़ी हद तक मित्र। इसलिए मैं भी मित्रता निभाने गई। मैंने देखा चारों ओर मित्रता ही मित्रता थी। कविता कहीं नहीं थी। कार्यक्रम शुरू होने से पहले ही कानाफूसी शुरू हो गई। एक ओर मेज़ पर 15-20 पुष्पगुच्छ रखे थे। मेरी मित्र ने कान में कहा -“लगता है कार भर कर फूल लाए हैं। शायद हमें भी दें।”

मैं केवल मुस्कुराई। मेरी बुरी आदत है। वक़्त पर पहुँचने की। एक घण्टा हो चुका था और अभी तैयारियाँ चल रहीं थीं। मुझे लग रहा था, मैं यहाँ वक़्त बर्बाद करने आई हूँ। आख़िर कार्यक्रम शुरू हुआ और पुष्पगुच्छ आदान -प्रदान होने  लगा। इसको, उसको, तुमको, मुझको, आपको, उन्हें, इन्हें सबको पुष्पगुच्छ दिए गए। उन्होंने कविता के प्रोग्राम में नाना, मामा, चाचा, ताया, फूफा, ननद, देवर, मौसा, चाची, मामी, मित्र, शत्रु सब को बुलाया था। एक बार तो मुझे संदेह हुआ कि कविता कहीं है भी यहाँ। कहीं यह मुंडन समारोह तो नहीं। जो महाज्ञानी यह कार्यक्रम करवा रहे थे। उनमें मुझे महाकवि की झलक दिखाई दी। वे बस महाकवि होने की कगार पर थे।

महाकवि होने की प्रबल इच्छा हर मन में छिपी है। एक स्थापित कवि हैं। लोग उन्हें जानते हैं। पर केवल कवि होना, कोई मायने नहीं रखता।’महाकवि ‘जिसे दूसरे शहर के लोग भी जानते हों। उन्होंने दूसरे शहर के कवि  को बुलाया और उसके पैसे से एक बड़ा कार्यक्रम आयोजित किया। महाकवि होने का यह एक लक्षण है कि दूसरों के कार्यक्रम को साकार करना। दूसरे शहर का कवि अकेला नहीं आया। संग कुछ कवि और ले आया। जैसे गुण्डा कभी अकेला नहीं जाता। अब कार्यक्रम में दो पक्ष थे। दो अलग -अलग शहर के कवि -लेखक। आपस में कुछ विचार -विरोध हुआ और काव्य कार्यक्रम युद्धक्षेत्र, कुरुक्षेत्र बन गया। कई दिन तक इसकी चर्चा होती रही। थू-थू भी हुई और कवि ने महाकवि होने की इच्छा को तिलांजलि दे दी। अब वह कवि बन कर अच्छा काम कर रहे हैं। साहित्य सेवा के लिए कवि होना ही पर्याप्त है।

कहीं कोई कार्यक्रम हो तो लोग कवि से नहीं महाकवि से सम्पर्क करते हैं।महाकवि का एक लक्षण यह भी है कि उसकी जेब में कई कवि होते हैं।वह किसी भी कवि की क़िस्मत संवार सकता है या बिगाड़ सकता है। वह संवारने पर आए तो तुकबंदी कवि को महान कवि बता सकता है। बिगाड़ने पर आए तो अच्छे कवि को अज्ञानी बता सकता है। लोग महाकवि से बहुत डरते हैं। उससे कभी बिगाड़ते नहीं। वह नई -नई जगह कविता पाठ का मौक़ा देता है। कवि उसे माई बाप समझते हैं।मुँह पर तारीफ़ करते हैं और पीठ पीछे गालियाँ देते हैं।जिससे महाकवि नाराज़ हो जाए। उसके बारे में वह कहता है -“बस! यह बहुत उड़ लिया। अब इसे ज़मीन पर लाना होगा। ”वह दूसरों को भी उसे नीचा दिखाने को कहता है। उसे साहित्य की दुनिया से बाहर का रास्ता दिखा देता है। महाकवि किसी राजनैतिक नेता से कम नहीं होता। तुम क्या जानो कवि बाबू!

महाकवि साहित्य जगत का ईश्वर होता है। जिस तरह ईश्वर का जगत पर नियंत्रण है। उसी तरह महाकवि भी साहित्य जगत पर नियंत्रण रखता है। वह चाहता है कि अपने इलाके के सभी कवि -लेखकों को मुट्ठी में रखे। काम दूसरे करें और गुणगान उसका हो। उसे हर कार्यक्रम में बुलाएँ।उसे फूल मालाएँ पहनाएँ। सिंहासन पर बिठाएँ। तिलक लगाएँ। अंगरक्खा ओढ़ाएँ। जय -जयकार करें।तस्वीरें खींचे।तस्वीरें अख़बारों में छपवाएँ।बस मैं ही मैं दूसरो न कोई।

महाकवि टोपियों का व्यापारी होता है। इसकी टोपी उसके सर। बहुत टोपियाँ घुमाता है। पर अपने सिर पर टोपी रखनी नहीं भूलता। अपनी टोपी को वह राज मुकुट समझता है। बेचारे को पता नहीं कि राजाओं के दिन लद गए। वह दूसरे कवियों की किताबों पर टिप्पणी करता है। पर कोई किताब नहीं पढ़ता। वह किताब को मात्र देखता है। उसके पास दिव्य -दृष्टि है वह पहला और आख़री पन्ना देखकर पूरी किताब के विषय में जान लेता है। वह टिप्पणी में ऊल-जलूल बातें करता है। कवि लेखक से अपने प्रगाढ़ संबंधो की चर्चा करता है। किताब पर कुछ नहीं कहता। यह महाकवि की विशेषता है। तुम क्या जानो कवि बाबू!

वैसे मैं भी अब बहुत से कवि -लेखकों को जानने लगी हूँ। उनके दूरभाष नम्बर भी मेरे पास हैं। पिछले दिनों मैंने अपने घर पर गोष्ठी रखी। कई साहित्यकारों को आमंत्रित किया। अपनी विदेश में रहने वाली मित्र को बुलाकर रु -ब -रु करवाया। उसे सम्मानित किया। मुझे लगता है कि मुझमें भी महाकवि के लक्षण आने लगे हैं।शायद मैं भी महाकवि होने की कगार पर हूँ।

 

©डॉ. दलजीत कौर, चंडीगढ़

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