लेखक की कलम से

चहचहाना जब कहकहा बना !

✍ ■के. विक्रम राव, नई दिल्ली

आखिर राहुल गांधी ने नरेंद्र मोदी पर अपने ट्वीट में क्या तंज कसा? मूलतः उन्होंने व्यक्तिवाचक संज्ञा “सरेन्डर” उच्चारित करना चाहा था। वह विकृत होकर अपभ्रंश “सुरेन्दर” उच्चरित हो गया। इसके मायने हैं ध्वन्यात्मक (कंठ और तालु से उपजा) अव्यक्त (अनुच्चरित, अस्पष्ट) शब्द। (काशी नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा प्रकाशित “हिंदी शब्द सागर”, भाग नौ, पृष्ठ 4690)। यह तात्पर्य सर्वथा प्रामाणिक है क्योंकि कांग्रेस के कार्यकारी अध्यक्ष रहे पं. कमलापति त्रिपाठी इस शब्कोश के संपादक थे। यदि आंग्ल भाषा में प्रयुक्त राहुल का ट्वीट मान भी लें तो उसके प्रकरणार्थ होंगे “सरेन्डर” (आत्म समर्पण : चीन के समक्ष)। शायद एक हर्फ़ “R” छूट गया हो। अतः वह “Surender” बन गया! इस अति सूक्ष्म वर्ण विन्यास में हिज्जे उलट-पलट गए। नतीजन वर्तनी ने अनर्थ कर दिया हो। नरेंद्र (मोदी) अर्थात (इंसानों का पालक) और “सुरेन्द्र”मायने “देवताओं का राजा।” इस कारण समूची व्यक्तिवाचक संज्ञा अवांगमुख (औंधी) हो गई। इस पर उत्फुल्ल भाजपायी उछल पड़े। कह डाला कि राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री को प्रमोट कर दिया। लोक के राजा से देवराज (जन्नत का बादशाह) बना दिया। भावार्थ यही कि राहुल गांधी की दादी द्वारा नामित राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह से कम विद्वान तो उनका पौत्र कदापि नहीं लगे। चौथी पास ज्ञानी का मशहूर उद्गार था: “इंदिरा कहेंगी तो मैं राष्ट्रपति भवन में झाड़ू भी लगाऊंगा।” स्मरण हो कि उच्चतम न्यायालय से राहुल गांधी विगत लोकसभा चुनाव के समय शाब्दिक अनर्थ के लिए क्षमा याचना कर चुके हैं।

राहुल गांधी के शाब्दिक भूल की गंभीरता के प्रशमन पर तर्क मिला है कि उन्हें हिंदी के लिए नागरी प्रचारिणी सभा से, साहित्य सम्मेलन से या राष्ट्रभाषा परिषद् से कोई पारितोष तो मिला नहीं। अतः भाषायी अल्पज्ञान के संदेह में कानूनी लाभ तो उन्हें मिलना चाहिए। यूं भी उनकी उच्च शिक्षा का विवरण गोपनीय ही है। फिर समझ के फेर का प्रभाव शब्द के प्रयोग तथा उच्चारण पर पड़ता ही है। मसलन अहिन्दी-भाषी (कर्णाटकवासी) एचडी देवेगौड़ा ने लाल किले के प्राचीर से प्रधानमंत्री के नाते राष्ट्र के नाम उद्बोधन (15 अगस्त 1996) में उत्तराखण्ड को उत्तरकाण्ड कह दिया था। मानस और भूगोल के दरम्यान भ्रम सरजाया था।

फिलहाल राहुल गांधी द्वारा अक्षर-क्रम में अनभिज्ञता हो गई। हिंदी व अंग्रेजी शब्दों के बोलने में जिह्वा फिसल गई अथवा कलम बंद करने की बेला पर वर्तनी अटक गई। यूं राहुल गांधी की उक्ति या उलझन पर अचरज नहीं होना चाहिए। उनके स्वर्गीय पिता ने (बकौल स्तंभकार शरद जोशी के) एक ग्रामीण अंचल की यात्रा पर सुझाया था कि गर्मियों में नदी जल के सूखने से बचाव हेतु उसे किरमिच से ढका जाय ताकि किसानों के खेतों को पानी मिलता रहे। उनके चाचा संजय गांधी तो लखनऊ में एक बार आग्रह कर चुके थे कि मृदा उपजाऊ बनाई जाय ताकि खेतों में चीनी ज्यादा पैदा हो। ऐसे विचारवान भ्राताओं में बड़का तो प्रधानमंत्री बना। छुटका अधिकारप्राप्त प्रधान मंत्री। अलबत्ता राहुल गांधी की माताश्री की श्लाघा करनी पड़ेगी कि रोम से आकर भी, इमला ही सही, वे हिंदी बोलतीं तो हैं। उनकी मातृभाषा इतालवी तो कोमलकांत पदावली के लिए प्रसिद्ध है, जयदेव की “ललित लवंग लता परिशीलन कोमल मलय समीरे” जैसी। मेरी मीठी मातृभाषा तेलुगु “पूर्व की इतालवी” के रूप में प्रसिद्ध है। यहां बस कहने का लब्बो लुआब इतना ही है कि “सुरेन्द्र” तथा “सरेन्डर” के शाब्दिक भ्रमजाल में अनायास पड़ने से बेहतर है कि वे पाठ्यपुस्तकों के सम्यक अध्ययन का अभ्यास डालें। नागरी लिपि का पर्याप्त ज्ञान तथा दोनों (राष्ट्र और राजकाज वाली) भाषाओं में भिन्नता पहचानें।

उदाहरणार्थ एक बार उत्तर प्रदेश विधान परिषद् में (1979) कांग्रेस विपक्ष के नेता स्व. पं. ब्रह्म दत्त ने सत्तारूढ़ जनता पार्टी के जनसंघ घटक के मंत्री को फ़ासिस्ट कह दिया। तब प्रेस दीर्घा में ‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ के संवाददाता के नाते मैं बहस को सुन रहा था। मंत्री ने जोरदार विरोध किया। पीठासीन सभापति ने स्पष्टीकरण दिया कि प्रयुक्त शब्द फ़ासिस्ट है तो उसपर एतराज का आधार बताएं। इसपर मंत्री बोले : “ठीक है, मैं समझा था कि अशिष्ट कहा है, जो अपमानजनक है।” विवाद ख़त्म हो गया।

कुछ मिलती-जुलती वारदात “लन्दन टाइम”की है। अपने फौजी जनरल रहे दिवंगत पति के निधन का विज्ञापन देने एक महिला समाचारपत्र के कार्यालय में गई। विज्ञापन का मजमून था : “The Genaral was a Battle-scarred soldier.” शब्द scarred से एक “R” छूट गया। तो अर्थ हुआ “युद्ध से भयभीत। ” दूसरे दिन क्षमा मांगते हुए अख़बार वालों ने संशोधन में “Battle” की जहग “Bottle” छाप दिया। मायने शराबी के बनते हैं।

इसी परिवेश में राहुल गांधी ने जब प्रधानमंत्री को भरी लोकसभा में गले लगा लिया और फिर बायीं पलक दबाकर शैतानी भरी मुस्कान बिखेरी थी तो बवाल नहीं उठा था। मगर जब प्रधानमंत्री सरदार मनमोहन सिंह की काबीना द्वारा एक अध्यादेश की प्रति को सरेआम सदन में राहुल गांधी ने फाड़ दिया, चिथड़े कर दिए, तो सत्तासीन दल का अपमान तो हुआ ही, लोकसभा की भी अवमानना हुई। परन्तु, कुछ फर्क नहीं पड़ा। कोतवाल ही हुजूरवाला हो तो राहुल को किसका डर? झेलम की मिट्टी से बने मनमोहन सिंह मन मसोसकर रह गए थे। नरेंद्र मोदी साबरमती की रेत से उपजे हैं। प्रतिक्रिया भिन्न होगी ही। इसका नतीजा अमेठी में देखा जा चुका है।

–लेखक इंडियन फेडरेशन ऑफ वर्किंग जर्नलिस्ट (IFWJ) के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं।

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