लेखक की कलम से

गोबर ह बेचाही …

सुनो -सुनो संगवारी मोर,

अब तो गोबर ह बेचाही।

कतेक सुग्घर लागहि जब,

बरदी के गरुवा ढिलाही।।

 

तैतीस कोटि देवी -देवता के,

गऊ माता म वास हे।

फेर हमर करनी के सेती,

आज वहु ह उदास हे।।

गऊ माता के सेवा बजाके,

सब नारायण ल मनाही—

 

गऊ माता ह गरू होगे,

सब झन वोला दुर्रावत हे।

सरदी,गरमी, अउ बरसा म,

खोर-खोर बोम्बियावत हे।।

अब हियाव होही गईया के,

चरवाहा बंसी बजाही—

 

अब हरहा कोनों गरुवा नइ घूमें,

जब कोठा म बंधाही।

दूध के संग म दही -मही के,

अब घर -घर गंगा बोहाही।।

बेर बूड़त गोधूलि बेला में,

अब फेर बछरू ह नरियाही——-

 

खेती -किसानी अउ पशुपालन के,

सुग्घर दिन ह आहि।

रोका -छेका जब होही संगी,

गाय-गरुआ ह भोगाही।।

कतको बीमारी दुरिहा भागही,

गौ मूत्र जब लगाही——

 

गोबर ले जब खातू बनही,

खेती -खार हरियाही।

कतको ल रोजगार मिलही,

परदूषण ह भगाही।।

गोबर गैस ले बनही खाना,

बिजली के बचत कराही—-

 

गोधन नियाव योजना संगी,

अब छत्तीसगढ़ म आ गे।

गऊ माता के पूजा होही ,

अब सबके भाग ह जागे।।

छत्तीसगढ़ म गऊ हत्या ल,

अब कोन पापी ह कराही —-

 

सुरहीन गइया के गोबर मंगाके,

घर अंगना ल लिपबोन।

छत्तीसगढ़ी संस्कृति के हम,

नवा इतिहास ल लिखबोन।।

ये बच्छर के देवारी म,

सहिच्च म,गोबरधन ल खुंदाही—–

 

      ©श्रवण कुमार साहू, राजिम, गरियाबंद (छग)          

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