ओ मेरी कविता …
ओ मेरी कविता की सरिता
यूं ही बहे चलो,
जो तेरी लहरों को भाए,
वे ही कहे चलो।
लहरों का संगीत सलिल से
हृदय तंत्र तक उतर गया है
जीवन साज मधुर ध्वनि में
झंकृत गीतों से संवर गया है।
डूब गया है तन मन तेरे
प्रेम सलिल सागर अंदर
अंकपाश में जाकर तेरे
यह पत्थर भी पिघल गया है।
नाव सम्हालों पतवारें
मेरी तुम गहे चलो
ओ मेरी कविता की सरिता
यूं ही बहे चलो।
सारी उम्र बीतने जब थी
तभी तुम्हें जाना
यही खेद है उद्गम से ही
क्यों ना पहचाना
समय अभी भी शेष सफ़र का
दूर समन्दर है
बुझी कहां है प्यास बहुत
अधरों के अंदर है
सुख दुख जैसा समय साथ दे
वैसा रहे चलो।
ओ मेरी कविता की सरिता
यूं ही बहे चलो।
थके नहीं हैं पांव दूर तक
बहती जाती है
हार गई आशा, तो मंजिल
कभी न आती है
लक्ष्य कठिन है यही सोचकर
रुका नहीं जाता
चलना यदि अनवरत
समन्दर स्वयं चला आता।
थकन सफ़र में जितनी भी हो
हंसकर सहे चलो।
ओ मेरी कविता की सरिता
यूं ही बहे चलो।
©दिलबाग राज, बिल्हा, छत्तीसगढ़