लेखक की कलम से

गीत-गुंजार…

हमने यूं भी ज़ख्म छुपाया नहीं
बिन तेरे कहीं दिखाया नहीं

बस पसरी रही चुपयां
घर घर में
चीखता शहर गांव जा बताया नहीं

बन गया मैं एक आईना यारों
हर शख्स का चेहरा फिर छुपाया नहीं

हवाओं ने दिया पैगाम आने का तेरे
क्यों चमन का हर गुल
मुस्काया नहीं

चलो भाग चलें (मीरा )
ये शहर दंगाई/ गल कटियों का
यहां रहम कोई खाया नहींं
— निकला अरमानों का मेरे जनाज़ा _
बढ़के आगे कोई आया नहीं

© मीरा हिंगोरानी, नई दिल्ली

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