लेखक की कलम से

किसान आंदोलन की आड़ में ट्विटर बना अखाड़ा, कृषकों को राजनीति नहीं सुरक्षित कल चाहिए …

 

किसान आंदोलन कुछ इस तरह से गरमाया है कि ट्विटर भी एक अखाड़ा बन गया है। अब तो आलम यह है कि दिनभर फेसबुक व ट्विटर पर किसान आंदोलन से जुड़े हैशटैग ट्रेंड करते रहते है। देश-विदेश और स्थानीय जनप्रतिनिधियों से लेकर आम आदमी तक सोशल मीडिया पर किसान आंदोलन के पक्ष तथा विपक्ष में अपना मत रख रहे हैं।

कुछ समय से जैसे नया ट्रेंड चल पड़ा है, अब लोग आमने सामने बात करने की बजाय, डिजिटल रिएक्शंस देने लगे है और इससे माहौल कुछ अलग ही होगया है। खैर, पिछले कई दिनों से चल रहे किसान आंदोलन में हॉलीवुड स्टार रिहाना, और क्लाइमेट चेंज एक्टिविस्ट ग्रेटा थंनबर्ग के ट्वीट ने जैसे तड़का लगा दिया। एक तरफ हॉलीवुड के कुछ सेलेब्रिटी तो दूसरी तरफ बॉलीवुड से लेकर सिंगर्स, क्रिकेटर्स हर किसी ने ट्वीट के पलट वार किए।

किसान शुरू से ही देश की अर्थव्यवस्था की नींव रहा है लेकिन अब ऐसा प्रतीत होता है यह नींव अब कमजोर पड़ने लगी है? अब सोचने में यह आता है कि हमारे देश में कृषि का क्या भविष्य होगा? और यह सवाल बहुत ही गंभीर है और अब हमें इस बात पर सोचने की जरूरत है।

एक बड़ी समस्या यह भी है कि किसान को ज्यादातर हर हालत में घाटे का सामना करना पड़ता है। यदि उत्पादन अच्छा हुआ हो तब भी, यदि अच्छा नहीं हुआ तब भी। लगभग हर साल टमाटर, प्याज, आलू आदि मौसमी सब्जियां औने-पौने दामों पर बेचनी पड़ती है।

देखा जाए तो पिछले कई सालों में खेती की लागत तेजी से बढ़ा है, उसके अनुपात में किसानों के फसलों के दाम काफी कम बढ़े हैं। कई कृषि संबंधित रिपोर्टों के आधार पर बात की जाए तो प्रतिवर्ष खेती का रकबा घटता जा रहा है। किसान खेती -किसानी को छोड़ कर मजदूरी करने पर मजबूर हो गया है। पिछले कई सालों से रोजगार की खोज में गांवों से पलायन ने जोर पकड़ लिया है। साफ है, देश अपने मजबूती को, किसानों को खो रहा है। ऐसा प्रतीत हो रहा है कि अब देश में कोई बड़ा बदलाव होने वाला है अब यह बदलाव सकारात्मक होगा या नकारात्मक ये बात तो आने वाला वक्त ही बताएगा।

आजादी के 75 वर्षों बाद भी देश के किसानों की स्थिति में कुछ बड़ा बदलाव नहीं आया। उल्टा दिनों दिन बल्कि किसान और खेती दोनों ही दलदल में धंसते चले जा रहे हैं। कुछ अच्छे, समृद्धशाली किसानों की बात की जाती है, लेकिन उनकी गिनती बहुत ही कम है।

सच बात तो यह है कि किसानों का दुख-दर्द देखकर मन बहुत खराब होता है। और सबसे ज्यादा रोष तो तब आता है जब कुछ राजनीतिक दल अपना राजनीतिक भुट्टा सेंकने के लिए मासूम किसानों को अपना मोहरा बना कर पेश करते हैं।

विपक्ष का किसानों को इस कदर भड़काना भारत के लिए बहुत खतरनाक साबित हो सकता है। सभी दलों को ओछी राजनीति करने से बचना चाहिए और इसके परे जाकर स्थिति को नॉर्मल करने की कोशिश करना चाहिए।

किसान आंदोलन का राजनीतिकरण कुछ इस कदर हुआ है के किसान भाई इस बिल को लेकर कंफ्यूज हो गए हैं, ऐसे में मोदी सरकार को भी जिम्मेदारी है कि किसानों की जो आशंकाएं हैं, उसका निवारण करे। अगर मोदी सरकार यह कानून किसानों की भलाई के लिए लाई है तो किसानों को यह बात समझाने की जिम्मेदारी भी उनकी ही है।

असल बात तो यह है कि जब तक खेती किसानी के बीच राजनीति आएगी तब तक किसानों का असली में भला नहीं हो सकता।

कृषि, किसान तथा गांव को आत्मनिर्भर व समृद्ध बनाने के क्षेत्र में कृषि आधारित कुटीर और लघु उद्योगों को पुनर्जीवित करना होगा। जब खेती ना हो ऐसी स्तिथि में किसानों को एक पूरक आय के लिए तैयार करना होगा।

यदि हम सही मायनों में सभी किसानों की परिस्थिति में बदलाव लाना चाहते हैं तो भारतीय कृषि व्यवस्था को आधुनिक तरीकों को अपनाना होगा तथा प्रतिस्पर्धी भी बनना होगा।

 

©परिधि रघुवंशी, मुंबई

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