लेखक की कलम से

मुझ अकिंचन …

मुझ अकिंचन

की ध्वनि क्या

तुम्हें ध्वनित कर पा रही?

स्वर लहरी क्या आनंद के

रंग बिखरा रही?

वाणी शब्दाक्षरों के अर्थ

व्यंजित कर रही?

मनोभाव मनोयोग के क्रम

तक पहुंचा रही?

अमूर्त से मूर्त तक की

श्रृंखला बतला रही?

सुक्ष्म से अतिसूक्ष्म के

आवरण तक पहुंचा रही?

अदृश्य में भी दृष्टि

फलक चमका रही?

यदि हां,

तो मेरे विचार धाराओं के

प्रवाह ने

“मुझ अकिंचन”

को जोड़ा

तुमसे…..

 

©अल्पना सिंह, शिक्षिका, कोलकाता                            

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