लेखक की कलम से
स्वतंत्रता …
वर्षों के गुलामी ये संघर्ष जो झेले हैं,
ये स्वतंत्रता के मोल समझते वही हैं,
दु:ख भरी बादलों में सुख निहारे जो,
आज वर्षा के मोल ये समझते वही हैं,
चाबुके के मार और चीत्कार जो सुने,
माँ भारती की पीड़ा ये समझते वही हैं,
कालापानी की सजा कालकोठरी मिले,
ये स्वतंत्रता की पीड़ा बयाँ वही करते हैं,
भरे दोपहरी में तन से पसीना जो टपके,
अन्न की मोल पीड़ा किसान ही समझे हैं,
लाज बचाने तेरे माँ ये सैकड़ोँ मिल चले,
फंदे को चूम नवयुवा वंदेमातरम बोले हैँ,
यज्ञ की बलिवेदी में सैकड़ोँ आहुति दिए,
ये तिरंगे की बानाधर कूद वे साक्षी बने हैँ,
पिंजड़े की पीड़ा को वे खग ही तो जाने हैँ,
खीर- पूड़ी- फल आज मुक्त की न सुहाए है,
आज सहजता से स्वतंत्रता नहीं मिला है,
जनगण सभी ये आज समझना जरूरी है,
“जय हिंद”
©योगेश ध्रुव, धमतरी, छत्तीसगढ़