लेखक की कलम से

हां थोडी बदल गई हूं मैं …

बिखरी, बिखरी सी थी

अब स्वयं में सिमटने लगी हूं मैं

सलीके की जिंदगी से

अब थोड़ी बेपरवाह होने लगी हूं मैं ।।

स्वयं से स्वयं के लिये बदलने लगी हूं मैं

इसलिये लोगों अखरने लगी हूं मैं ।।

अम्बर को बाहों में भरने का,

खुला न्योता देने लगी हूं मैं

पंख कतरने वालों को

अब खटकने लगी हूं मैं

अपने घावों को भरकर

किस्मत को सीने लगी हूं मैं

हां सुई सी सबको चुभने लगी हूं मैं ।।

सिमटी सोच को

विस्तार देने लगी हूं मैं

पगडंडियों से दूरी मापने लगी हूं मैं

दूर क्षितिज है,,,जानती हूं मैं,

आस मिलन की फिर भी, बांधने लगी हूं मैं ।

कभी बेटी बन पिता के लिये

कभी पत्नी बन पति के लिये

तो कभी मां बन बच्चों के लिये

स्वयं को उस अनुरूप किया

अब स्त्री बन अपने स्त्रीत्व को जीने लगी हूं मै

हां अब स्वयं के लिये जीने लगी हूं मैं

हां,,,अब बदल गई हूं मै,

हां,,,,अब बदल गई हूं मैं।।

©रजनी चतुर्वेदी, बीना मध्य प्रदेश         

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