लेखक की कलम से

वाह रे करोना …

वाह रे करोना,

तेहा मनखे ल आज,

फिर से जीना सीखा देस।

दूध ल कोन कहे,

छाछ ल घलक,

फूँक-फूँक के,

तै पीना सीखा देस।।

 

जेन मनखे के कौरा ह,

चिकन,मटन बिन उठे नहीं,

आज वो मनखे ल,

शाकाहारी भोजन खाय बर,

अउ मटकी के पानी ल,

तै पीना सीखा देस।।

 

जेन मनखे ल,

बड़े बड़े बफे पार्टी,

अउ रेस्टोरेंट के डिनर से,

फुर्सत नई मिले,

आज वोमन ल तै,

परिवार के संग रहना,

अउ जिनगी ल ,

तै जीना सीखा देस।

 

जेन मनखे ह,

 घूंघट,के परदा ,

के विरोधी राहय।

आज उहि ल,

तै मास्क के कैद म,

 रही के जीना सीखा देस।

 

हाथ जोड़के ,

जय जोहार करना ल,

जेन ह  देहाती सभ्यता

 के  प्रतीक माने,

हाय -हलो, बाय -बाय ल,

जेन सभ्यता के प्रतीक जाने,

तै वो मनखे ल आज ,

हाथ जोड़के,नमस्कार,

कहे बर जीना सीखा देस।

 

हमर सनातन संस्कृति,

 में विज्ञान के,प्रमाण हे।

हर जीव में शिव हे अउ,

कण- कण में भगवान हे।।

तभे तो हर मनखे ल,

एक दूसर के खातिर,

मरना अउ जीना, सीखा देस।।

 

प्रकृति म पानी के,

अउ संस्कृति म,

वाणी के ,

हावय अड़बड़ मोल,

ये जिनगी न मिले दुबारा,

मानुष तन हावय अनमोल।

“सर्वे भवन्तु सुखिनः”

के भाव ले के ,

ये दुनियाँ ल तेहा,

फिर से जीना सीखा देस।

©श्रवण कुमार साहू, “प्रखर”, राजिम, गरियाबंद (छग)

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