लेखक की कलम से

सबका अपना अपना संसार …

 

जर्जर तन है

तीन बच्चों के पिता का

चारपाई पर बैठा

चिल्लाता है हरदम

बहरी हो गई क्या..,…

सुनती क्यों नहीं…..

 

मैं बर्तनों को और

जोर से पटकने लगती हूँ

अनसुना कर पाऊँ जहर भरे शब्द

 

आंखों पर पट्टी बाँध ले जाती हूँ

बाहर बच्चों को बाज़ार

खिलौने देख कहीं मचलने न लगें

न देखनी पड़ें मुझे उनकी खाली उदास आंखें

 

हाथ कट गया था देवर का

मशीन में  …. काम बंद हो गया

थाली परोसती हूँ तो

नज़रें नहीं उठाता जमीन से

आंचल में छिपा लेने का मन होता है

 

सबका अपना अपना संसार है

मेरी पूरी दुनिया यहीं है

 

मुझे नहीं चिंता राम मंदिर बनेगा

भूमि पूजन हुआ तो क्या हुआ

मस्जिद वालों से भी मुझे कोई लेना देना नहीं…,.

 

न पहले रामराज्य देखा

न अब कोई आस

न कोई चीर बढ़ाता केशव

देखा….. न बच्चियों को बचाने

आई कोई देवी देखी…..

 

होंगे ब्रहमाण्ड के स्वामी नारायण

सारे संसार के मालिक

 

चूल्हा जल पाए घर में रोज

तन पर कपड़ा, पैर में चप्पल

सर पर छत

छह घरों में झाड़ू पोंछा

बरतन करती हूँ

मुझे नहीं चिंता इतनी बड़ी दुनिया की

 

आकाश के सूनेपन से डर नहीं लगता

चिंता उसके बरसने से होने लगती है

 

अपनी छोटी सी दुनिया

की चिंता में घुलने लगती हूँ…

 

उम्र गुज़ार दी जिन्होंने

चारपाई पर हैं दोनों बुजुर्ग

इसकी उसकी सबकी चिंता फिक्र

जिनकी उम्र ही कुछ नहीं

उनकी कुछ ज्यादा

 

इतवार है या सोमवार

मंदिर है या मस्जिद

रोटी मिल जाए कहीं भी

सजदा कर लेती हूँ

 

खटती, खपती मुश्किल से

खाट मिलती है

मरी या सोई एक ही लगता है

कौन घुले इस चिंता में भी

जिंदा मिली सुबह तो

शुक्र नहीं मिली तो

खत्म फिक्र

 

बस यही मेरी पूजा, यही आदर्श

यही प्रेम है

 

इन सबको देखना  ही

बस काम है मेरा

 

  ©सीमा गुप्ता, पंचकूला, हरियाणा   

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