लेखक की कलम से
वो भी क्या दिन थे
वो भी क्या दिन थे जब,
हम अपने गांव में रहते थे ,
इंटरनेट और पब्जी नहीं था,
साइकिल के पहिए चलते थे ।।
गिल्ली और डंडे के हम भी,
तेंदुलकर कहलाते थे,
जीते जाने पर यारों के,
कांधे पर टंग जाते थे ,
एक कटी पतंग के पीछे,
जब दस-दस दौड़ा करते थे ।।
रेस्टोरेंट् और माल नहीं था,
पॉपकॉर्न और सिनेमा हॉल नहीं था ,
अम्मा की साड़ी पहनकर,
हम राम और सीता बनते थे,
वेद पुराणों की घटना जब,
हम मैदानों में रचते थे ।।
पिज्जा, बर्गर नहीं था,
पास्ता और चाऊमीन नहीं था,
अम्मा के चूल्हे में जब,
चोखा और मकुनी पकती थी ,
सोंधी सोंधी खुशबू लेकर,
हम देसी घी से खाते थे ।।
चोरी और व्यभिचार नहीं था,
बड़े, बुजुर्गों का तिरस्कार नहीं था ,
खेतों के मजदूर भी जब,
काका- काका कहलाते थे,
हर लड़की कर्णावती थी,
तब हम भी हुमायूं बन जाते थे।।
© ऋतु सिंह, वाराणसी