लेखक की कलम से
आश्वासन ही आश्वासन पर, देख रहा गणतंत्र …
रिक्त उदर में जले अँगीठी ,
आँत करे उत्पात ।
हर कातर स्वर करे अनसुना
विकट पूस की रात
कौन्तेय को लघुतर करने
खींचें खड़ी लकीर ।
दानवीर कंबल वितरित कर,
खिंचवाएँ तस्वीर ।
आँगन में है कुहरा, घर में
औंधी पड़ी परात ।
प्यास न अधरों की बुझ पायी,
भरा नयन में नीर ।
खरपतवार उगे हैं जब भी,
रोपी आस उशीर ।
नीति पिण्ड भी नित नव रह -रह,
करते उल्कापात ।
आश्वासन ही आश्वासन पर,
देख रहा गणतंत्र ।
हाकिम फूँकें लाल किले से,
विफल हुए वे मंत्र ।
वादों की नंगी तकली पर ,
सूत रहे हैं कात ।
©अनामिका सिंह, फिरोजाबाद, उत्तरप्रदेश