लेखक की कलम से

संस्कृत, यदि राष्ट्रभाषा होती तो …

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हार्वार्ड संस्थान की लच्छेदार अंग्रेजी शब्दावली में वे उन्हीं बातों और सिद्धातों को नया परिधान पहनाकर परोसते हैं, जिन्हें बहुत पहले समृद्ध भारत में लिखा जा चुका है। मसलन डकैती से ऋषित्व तक पहुंचनेवाले आचार्य वाल्मीकि ने कहा था: ‘धृति:, दृष्टिः, मतिः, दाक्ष्यम्, सः कर्मसु न सीदति।’ (रामायण, प्रथम सर्ग, उत्तर काण्ड, श्लोक 201)। अब अंग्रेजी माध्यम में बताया जाता है कि पेशंस (धैर्य), परसेप्शन (नज़रिया), प्रूडेंस (समझदारी), एक्सलैंस (प्रवीणता) जरूरी है, ताकि सलीके से काम सम्पन्न हो सके।

अक्सर मनोबल ऊँचा रखने का प्रशिक्षण दिया जाता है। इस बुनियादी मानसिक मसले पर वाल्मीकि ने ताकीद की थी कि:‘अनिर्वेदम् च दाक्ष्यम्च मनश्चापराजयम, कार्य सिद्धि करण्याहू।’ (चौथा काण्ड, 49 सर्ग, छठा श्लोक रामायण)। खुद को कोसना, अर्हता की कमी तथा हारे मन से काम करना सफलता नहीं देता। इसी बात को पश्चात्य मनोवैज्ञानिक दुरूह लफ्जों में कहें तो प्रभाव पड़ता है। दूसरा विषय जिसमें संस्कृत भाषा के माध्यम से उम्दा जानकारी उपलब्ध की जा सकती है, वह है पर्यावरण का क्षेत्र। यह बात खुद जर्मनी के मैक्समूलर तथा ब्रिटेन के प्राच्य विषय में व्याख्याता लिख चुके है कि संस्कृत कृतियों में हजारों वर्ष पूर्व विश्व-व्यवस्था की कल्पना होती रही है। मनुष्य तो विशाल ब्रह्मामण्ड का मात्र एक कण है। जल, थल, नभ, गृह सभी उसके जीवन को रोज प्रभावित करते हैं। हर यज्ञ (काम) शान्तिपाठ से आरम्भ और अंत करने का सिलसिला यही साबित करता है कि ऋषियों ने प्रकृति में संतुलन बनाये रखने के लिए नियम तय किये थे। इसी सिद्धान्त की झलक इस्लामी अभिवादन ‘अस्सलाम वालेकुम’ में मिलती है।

प्रबंधन और पर्यावरण के अलावा और भी अध्ययन तथा शोध हेतु विषय है जिनके जिज्ञासु संस्कृत भाषा को माध्यम न बना पाने के कारण अपर्याप्त, कभी-कभी विकृत ज्ञान को और भ्रामक सूचना को पाते हैं। संस्कृत भाषा में संभावनाएं और जानकारी का भण्डार अकूत हैं। कम्प्यूटर के लिए संस्कृत से बेहतर कोई भाषा नहीं है। तकनीकी आवश्यकताओं को पूरा करने और ध्वन्यात्मकता से भरे होने के कारण संस्कृत कम्प्यूटर के माफिक बैठती है। अतः संस्कृत पठन जीवनोपयोगी माध्यम है। संस्कृत में साफ्टवेयर भी गढ़ा जा सकता है। वैदिक गणित शंकराचार्य जयेंद्र सरस्वती की कृपा से अब साधारण विषय बन गया है।

शब्दों से अमीर, लिपि से निर्बाध संस्कृत आधुनिकतम वैज्ञानिक ज्ञान का सक्षम वाहन बन सकती है। इसकी पुष्टि की है अमरीकी वैज्ञानिक डा. रिक ब्रिग्स और डा. डेविड लेविन ने। अक्सर संस्कृत अध्ययन के क्रम में आयुर्वेद की चर्चा होती है। केरल के त्रिशूर नगर में आयुर्वेद संस्थान ने प्राचीन संस्कृत भाषायी ताड़पत्र की खोज से गत वर्ष उस फार्मूले का पता लगाया है जिससे ‘कोजेन्ट डीबी’ नामक औषधि बन सकती है। इससे मधुमेह में इंसुलिन इंजेक्शन की आवश्कयता नहीं रहेगी। अमरीका में विख्यात मेयो क्लीनिक मंे इस ताड़पत्र के फार्मूले पर शोध चल रहा है। वहां के वैज्ञानिक संस्कृत भाषा का ज्ञान हासिल कर रहे है।

एक ओर संस्कृत भाषा के ज्ञान के शिखरों को छूने की होड़ अमरीकी और पाश्चात्य वैज्ञानिकों में लगी हो और इधर भारत में संस्कृत का शिक्षक अभी तक बेरोजगार हो, अल्पवेतन पाता हो, तो राष्ट्र का हित चाहने वालों को ग्लानि और आक्रोश होना चाहिए। संस्कृत अध्ययन को ‘रामः-रामौ’ और ‘पठति-पठतः’ तक का ही मानकर उसे पढ़ाने-प्रयोग करने वालों को पोंगा पंडित मानने वाले भारतीय जिस कोख से जन्में है उसी को लात मारने का पाप करते है। वे शायद भूल जाते है कि विश्व की दस हजार जीवन्त भाषाओं में संस्कृत, मण्डारिन (चीनी) और इरबानी प्राचीनतम है। लातिन और ग्रीक बाद में आये। इस देवभाषा की उत्तर प्रदेश में दशा यह है कि 230 माध्यामिक संस्कृत विद्यालयों में से एक भी छात्र परीक्षा में बैठा ही नहीं। संस्कृत अध्यापन की स्थिति आज शिक्षा के दुकानदारीकरण के दौर में बिगड़ी है।

छह दशक पूर्व संस्कृत विषय पढ़ने पर मुझे लखनऊ के एक कालेज में फीस केवल आधी देनी पड़ी थी। रियायत थी। आज संस्कृत पढ़ने पर फीस चार्ज की जाती है। पर आशा बंधती है जब वैष्णो देवी तीर्थस्थल, तिरूपति देवस्थान, कुरूक्षेत्र विश्वविद्यालय आदि केन्द्रों को देखते, जहां इस देवभाषा के अध्ययन और शोध में विशेष रूचि ली जाती है। अध्यापन को आर्थिक रूप से आकर्षक बनाने मात्र से संस्कृत की लम्बी उपेक्षा का अन्त नहीं हो जायेगा। पाठ्यक्रमों का आधुनिकीकरण, राजस्थान शासन के निर्णय की भांति संस्कृत अध्ययन को अनिवार्य विषय बनाना, अमरकोश जैसे प्रकाशनों में बढ़ोत्तरी, खासकर पुराण, इतिहास (हर्ष चरित्र) साहित्य आदि की सुलभ दामों पर उपलब्धि, दूरदर्शन पर आकाशवाणी की भांति सरल संस्कृत में सीरियल बनवाना, समस्त संस्कृत संस्थानों को इन्टरनेट द्वारा जोड़ना आदि चन्द ऐसे सुझाव है जिन पर विचार करना चाहिए। साथ ही राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान के कार्यकलापों की मंत्री-स्तरीय समीक्षा करनी होगी, ताकि गतिशीलता बढ़ाई जा सके।

संस्कृत नीति के क्रियान्वयन में खामियों और विसंगतियों को तो बिना देरी के समाप्त करना होगा। स्वाधीन भारत के प्रथम शिक्षामंत्री मौलना अबुल कलाम आजाद ने संस्कृत पर ध्यान नहीं दिया, क्योंकि सिवाय उर्दू-अरबी के उन्हें कोई भी भाषा आती नहीं थी। परन्तु संस्कृत, हिन्दी, तथा अंग्रेजी के जानकार जो बाद में केन्द्रीय मंत्री बने यदि संस्कृत की प्रगति तेज नहीं कर पाये, तो उन्हें क्षमा नहीं, दण्डनीय अपराध का दोषी करार दिया जायेगा।

 

©के. विक्रम राव, नई दिल्ली                                           

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