लेखक की कलम से
मैं, तुम और हम….
मुझमें तुम वैसे ही रहे..
जैसे रही
किसी बीज में
संभावना..जीवन की।
तुमने भी मुझे स्वयं में
वैसे ही बचाया
जैसे पतझड़ में वृक्षों ने
झाड़ कर पर्ण..बचा ली नमी।
मैंने तुम्हें स्वयं में
वैसे ही बचाया..
जैसे धरा ने बारिशों को सोखकर
बचा लिया अपने भीतर।
तुमने भी मुझे
स्वयं में वैसे ही बचाया
जैसे मेघों ने वर्षा के बाद भी
बचा लिया थोड़ा-सा जल।
हमने सहेजा है एक-दूजे को
अपने में वैसे ही
जैसे सृष्टि सहेजती है अस्तित्व के लिए
संभावनाएँ कई….।।
©सुनीता डी प्रसाद, नई दिल्ली