लेखक की कलम से

क्षणिक जीवन का कटु सत्य…..

श्रीमती मयूरी जोशी, पारादीप

आज स्तब्ध हूं और मौन भी।एक ऐसा सच आंखों के सामने हैजिसेमन स्वीकार करने को तैयार नहीं।मन की भावनाओं को शब्दों का जामा पहनाने में मैं खुद को आज असमर्थ पा रही हूं।सोचती हूं एक नन्ही सी जान के लिएऐसीनियति!शारीरिक कष्ट की पराकाष्ठा कोपार करने के उपरांत भीउसकी आत्मा ने शरीर का साथ अंततः छोड़ दिया।ऐसा नहीं हैकि अनभिज्ञ हूं मैं इस सत्य से कि माटी की काया माटी में मिल जानी है, फिर भी मनइसे अस्वीकार करता है आज।वो आंखें जिसने अभी भविष्य के रंगीन और उज्जवल सपने देखे भी नहीं थे,वोउंगलियां जिसनेकल्पनाओंके रंग चित्रों में उकेरे नहीं थे,वह मन जो अब भी बाल सुलभ विचारों और प्रवृत्तियों से भरा था जो निष्कपट- निष्पाप था उसकी ऐसी परिणति! किस ईश्वर से इसकाउत्तर मांगूँ, मन की व्यथाकिसे सुनाऊं?
आज भीआंखों में वह छवि स्पष्ट है।हृष्ट-पुष्ट सी काया,जिज्ञासाओंसे भरी आंखें, मन मेंकई अनकहे सवाल लिएउसनेकक्षा मेंप्रवेशलिया।अपनेनामको सार्थक कर रहा थावह- ‘दिब्येंदु’।‘चंद्रमा सा प्रकाश’ था मुख पर और एक ऐसी शांतिका भावजो कईघंटोंकीध्यान-साधनासे प्राप्तहोती है।कक्षा में पर किसी से ज्यादा बातें नहीं करता अपने लक्ष्य के प्रति सजगथा। वह जानता था कि उसे क्या करना है।ना किसी से गहरी दोस्ती और ना ही कभी किसी के साथ कोई मनमुटाव करते हुए उसे देखा।शायद ही कभी किसी टीचर ने उसे ऊंची आवाज में डांटा या कभी कोई शिकायत की हो।अंतर्मुखी थालेकिन जब कभी भी अपनी प्रतिभा को प्रकट करने का मौका मिला तो पीछे हटने वालोंमेंसे नहीं था।विद्यालय में आए अभी 3 वर्ष ही हुए थे लेकिन इन तीन वर्षों में उसने अपने आप में बहुत कुछ बदलाव लाएं।अगर कुछ नहीं बदला तो वह थी उसकी विनम्रता, जिज्ञासा और अपने आप को निरंतर आगे बढ़ाते रहने कीआकांक्षा।

कोरोना महामारी के कारण स्कूल बंद हो गए थे लेकिन अन्य स्कूलों की तरह ऑनलाइन कक्षाएं ली जा रही थी।वह आनलाइनकक्षा में उपस्थित होता लेकिन काफी दिनों से देखा नहीं और ना ही उसकी आवाज सुनी।लेकिन सभी परीक्षाओं में उसका प्रदर्शन पहले की तरह ही था। समझ नहीं आता था जवाब क्यों नहीं देता? बार-बार नाम पुकारने पर भी वह मौन क्योंरहता था?एक दिन जब असह्य हो गई तो उसके कक्षाचार्य से शिकायत कर दी।पूछने पर पता चला कि तबीयत कुछ खराब है।तबीयत खराब है मेरा यही मानना है कि शायद सर्दी जुकाम वाली बात होगी इसलिए उस तरफ ज्यादा गौर ना करते हुए मैंने अपना काम जारी रखा।
सर्दियों की छुट्टी बिताकर जनवरी में हम सभी पुनःविद्यालय आएऔर अपने- अपने कामों में जुट गए।एक खबर सुनी जिसनेन केवलमुझेवरन्मेरेसभीसहकर्मियों को निशब्दकर दिया।स्थिति यह थी किशरीर कोकाटो तो खून नहीं।शून्य,निष्प्राण से हम अपनेकानोंपर विश्वास करने मेंसक्षमनहींथे।खबर ही कुछअसहजकर देनेवालीथी।दिब्येंदु को कैंसरहो गयाहै औरयह भी सुनाकिउसकी स्थितिअत्यंत ही गंभीरहै।पैरोंतलेजमीनखिसकनेका अहसासपहलीबारहुआ।अपनेआपकोअसहायमहसूसकरने लगी।पता नहीं किस ईश्वरनेइसमासूमकेभाग्य मेंऐसीकठोर शारिरिक-पीड़ा लिखी।ताज्जुबतब हुआकि जीवनकी अंतिमसांसोंतक वह नहींजानता था कि आखिरउसेक्या है? लेकिनउसे पूरा विश्वास था कि वह जल्द ही स्वस्थहोकर घर लौटआएगा इसी आशा मेंवह असह्य- पीड़ासहता रहा।जाते-जातेएक ऐसाप्रश्नपूछ गयाजिसनेसबकोनिरूत्तर कर दिया।उसने लड़खड़ातीऔरकुछअस्पष्ट सी आवाज में पूछा- क्यामैंबोर्ड -परीक्षा दे सकता हूं? जीवन की परीक्षा में भले हीईश्वरने उसेफेल कर दिया हो पर उसकेइरादेऔरसशक्त मन के आगेतो उसने भी घुटने टेक दिए।मैंसंवेदनहीननहींहो सकतीहै कयोंकि मैंनेतुम्हेंप्रगति करतेदेखा है मैंसाक्षी हूंतुम्हारेसंघर्षकी।लेकिनसच तो यह है कि क्षणिक जीवनकेकटु सत्यको जानकर भी अनजानबन रहीहूं,इसी आस मेंजो तुमनेलगा रखी थी।ईश्वरतुम्हारीआत्मा को शांतिएवंसद्गति प्रदान करें।मेरी स्मृति में तुमसदैवअमर रहोगे।

प्रिय छात्र ‘दिब्येंदु’ की याद मे

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