लेखक की कलम से
ख़ामोश गुफ़्तगू …
ख़ामोशियाँ ही काफ़ी हैं
कुदरत से बात करने को
चाँद तारों से गुफ़्तगू करना
पेड़ों से सुख दुख साँझा करना
नदी में कुछ रंजिशें बहा देना
हवाओं में फ़िक्र उड़ा देना
फूलों से थोड़ी मुस्कुराहट चुरा लेना
बग़ीचे की हरी भरी घास पर
थोड़ी ख़ुशियाँ बटोर लेना
पहाड़ की सरसराती हवा से
कुछ साँसे उधार ले लेना
मन्दिर के गर्भ गृह में
सुकून और आशीर्वाद समेट लेना
सब ख़ामोशी से हो जाता है
शब्द बेमानी हो उठते हैं
क़ुदरत के समक्ष ।
©अलका काँसरा, चंडीगढ़