लेखक की कलम से

विसंगतियों पर करारा व्यंग्य है ‘मस्त-पस्त मुरारीजी’

पुस्तक समीक्षा

कहानी, लघुकथा, व्यंग्य, आलेख आदि विविध विधाओं में सालों से सृजनरत वीरेंद्र नारायण झा हिंदी तथा मैथिली में समान अधिकार से लिखते हैं। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लंबे समय तक स्तंभ लेखन का अनुभव है इनके पास। मैथिली भाषा में दो व्यंग्य संग्रह आने के बाद, हिंदी में पहला व्यंग्य संग्रह, ‘मस्त-पस्त मुरारीजी’ प्रकाशित हुआ है।

संग्रह में हास्य-व्यंग्य की कुल 20 रचनाए हैं, जिनसे गुजरते हुए पाठकों को यह अहसास होगा कि इन्होंने अपने आस-पास की दुनिया को बड़े गौर से देखा है। इन्होंने अपने समय को साहित्य में खोजा। अपने समय की कुरीतियों, विसंगतियों, कुव्यवस्था से दो-चार होते हुए उसमें ही हास्य- व्यंग्य खोज निकाला।

संग्रह की पहली रचना ‘मस्त-पस्त मुरारीजी’ के माध्यम से व्यंग्यकार ने छद्म साहित्य सेवकों, छपास रोगियों तथा सेटिंगबाज़ लेखकों की जमकर खबर ली है। बानगी देखिए- ‘मुरारीजी कब और कैसे लिखते हैं? कागज और कलम से तो वो कोसों दूर रहते हैं। किसी को पकड़ा, दिनभर का अनुभव बताया तथा मिर्ची पीसा, नमक-मसाला मिलाया और फीका लगा तो थोड़ा रंग डाला- हो गई तैयार जायकेदार रचना। भेज दिया प्रेस। हस्ताक्षर देखते ही संपादक ने अपनी स्वीकृति दे दी।’

‘दास्तान-ए-शादी’ रचना में व्यंग्यकार ने समलैंगिक शादी के बहाने दहेज प्रथा, छेड़खानी, अमानवीय अपराध आदि विषय पर जमकर लिखा है। समान लिंग में शादी के समर्थन के बहाने तीक्ष्ण व्यंग्य देखिए’ पहले तो एक सम्प्रदाय में रहते हुए भी मर्द औरत को औरत की निगाह से देखता था और औरत मर्द को मर्द की निगाह से। परंतु अब मर्द; मर्द को मर्द समझेगा और औरत; औरत को औरत समझेगी। किसी प्रकार का विरोधी भाव नहीं रहेगा। न कोई राजनीति होगी, न’ त्रिया चरित्र’ की बात उठेगी। अब क्यों किसी द्रौपदी का चीर- हरण होगा। क्यों कोई राम सीता की अग्नि परीक्षा लेगा।

‘लेखक होने का सुख’ रचना मुख्यतः ‘संपादक लीला’ के इर्द-गिर्द केन्द्रित है। लेखक के नाम एक संपादक के पत्र के बहाने व्यंग्यकार ने ‘छपास’ संस्कृति पर जमकर भड़ास निकाली है। भारत में लेखकों के लिए प्रचूर रॉ मटेरियल उपलब्ध होने पर व्यंग्यकार लिखते हैं’ जब तक देश में लूट, हत्या, बलात्कार, दंगे-फसाद, घोटाले, चुनाव आदि की खेती होती रहेगी, लेखक-संपादक फसल काटते रहेंगे।’

लेखक नौकरी, गृहस्थ जीवन और लेखन में किस तकलीफ से सामंजस्य बैठाकर रचनाकर्म करता है, इसका खूबसूरत उदाहरण है ‘पाने के लिए खोना जरूरी है।’

‘मोबाइली बेटा’ रचना में बाजारवाद तथा उपभोक्तावाद की संस्कृति पर प्रहार किया गया है। ‘ये तो पत्नी के रूठने का ही नतीजा था कि कड़की में भी उसे रंगीन टीवी सेट खरीदना पड़ा था और अब पता नहीं यह टीवी क्या-क्या खरीदवायेगा। ‘

व्यंग्य संग्रग के अधिकांश व्यंग्य पिछले एक दशक के दौरान लिखे गए हैं। अर्थात पिछले एक दशक से अधिक समय की सम-सामयिक घटनाओं, स्थितियों, परिस्थितियों का एक लजीज छौंक है यह व्यंग्य संग्रह।

संग्रह में कुछ मुद्रण की त्रुटियां हैं लेकिन व्यंग्य संग्रह के रसास्वादन में इससे व्यवधान नहीं पड़ता है। संग्रह में लेखक की धाराप्रवाहता एकदम से प्राकृतिक लगती है, पाठक कभी भी बोझिल नहीं होता है, जैसा कि पत्रकार अरुण विमोहन लिखते हैं – वीरेंद्र प्रकृति से व्यंग्यकार हैं। कुल मिलाकर एक पठनीय व्यंग्य संग्रह पाठकों को देने हेतु व्यंग्यकार को बधाई।

©अभिजित दूबे, पटना
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