लेखक की कलम से

बचपन के आंगन की याद …

 

बचपन का वो आंगन जिस में खेलते थे हम ।

मीठी एहसास का डोर आज भी यादों से बांधे हम।।

 

पता नहीं चला कब खेल बंद हो गया और ।मित्रों की टोली में पता नहीं कब बदल गया ll

 

फिर वह टोले मोहल्ले की गलियां ही हो गई मैदान ।

कभी उधम या धमाचौकड़ी कर बीता वह समय महान ll

 

आगे स्कूल का वह बक्सा हाथ में लिए स्कूल गया।

अपने सहपाठी और भाई बंधु संग मौज भी खूब किया ।।

 

पीपल की वह छाव बगीचे का वह आम-अमरुद ।

अधपकॉ सा होकर भी रस से लगता था भरपूर ll

 

फिर धीरे-धीरे सारे मित्र मंडली बिछड़ने लगे ।

कोई रोजगार तो कोई अपने पढ़ाई में व्यस्त हुए ll

 

कॉलेज का दौर जहां मिले सभी नए चेहरे ।पुराने दोस्तों की छवि ढूंढने उसी में लगे रहे ll

 

कुछ खट्टी कुछ मीठी यादें आज भी याद है ।अब उन दोस्तों का पता नहीं क्या हाल है ll

 

कभी गूगल तो कभी फेसबुक का सहारा लेकर उनको ढूंढते रहते हैं।

मिल जाने पर अजीब सा सुकून महसूस करते हैं ll

 

गांव की वह ताजी हवा याद बहुत आती है ।

मित्रों की वह मित्रमंडली दिल छू कर जाती है ll

 

माता का वह प्यार दुलार अब कहां मिल सकता है ।

बचपन का वह खेल खिलौना अब कहां मिल सकता है ll

 

अब तो बस जिम्मेदारी घर और परिवार का ।बेटा बेटी और पत्नी इसी के आधार का ll

 

रोजी रोटी घर का छत इसी के इंतजाम में ।जवानी की सीमा पार कर ली इसी के इंतजाम में ll

 

मन में बस तसल्ली है जो मैं कर रहा हूं वही शायद सब करते हैं ।

इसी को मानव जीवन का विभिन्न पड़ाव कहते हैं ।।

मानव जीवन में अलग-अलग पड़ाव है ।

हर पड़ाव का अपना ही एक पड़ाव है ।।

 

इन्हीं खट्टी मीठी यादों से ही मानव जीवन सफल हो जाता है ।

यही कारण है कि मानव धरा पर बार-बार आना चाहता है lll3

 

©कमलेश झा, शिवदुर्गा विहार फरीदाबाद    

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