लेखक की कलम से
ये आदमी…
ग़ज़ल
हर घड़ी हो रहा है बीमार आदमी ,
वक्त की मार से है बेज़ार आदमी।
रोज़ रोता हुआ खुद को खोता हुआ ,
सड़कों पर रस्तों पर लाचार आदमी ।
शैतानों से है देश सिसकता हुआ ,
सांस की आस में बेकरार आदमी ।
रिश्तों के दरमियां दूरियां दूरियां ,
अपने ही अपनों का शिकार आदमी ।
जिंदगी ने बहुत रंग बदले मगर,
कर रहा सुबह का इंतजार आदमी ।
©शालिनी मिश्रा, गाजियाबाद, उत्तरप्रदेश