नव चेतन……
आतुर हूँ एक नवचेतन की
धुरी पाने को।
जहाँ बसते हो शब्दों के
कस्बाई लोग
जागरूक हथेलियों पर
उगाते हैं बेशकीमती
ख्यालो की पौध….!!
भावों की मौसमी बारिशें
जो उर्वरित करती हैं
संवेदनाओं की धरा को….!!
उथल पुथल होते बादलो से
संवादों को जो बिन मौसम ही
बरसते हैं फिर कागज़ी ज़ेहन
में…!
जो अक्सर छपते हैं लाल
नीली स्याही में,…!!!
लिखती हूँ ,उकेरती हूँ
कई संज्ञाओं में
मात्राओं में।
बस नही बनते तो वह विधा में
बंधे दोहेओर रदीफ़ काफ़िया
में उलझी ग़ज़ल…!!
वह तो उलझी रहती हैं
उस मासूम शैशव सी
गिरती पड़ती व्याकरण और
वर्तनि के उच्चारणों के तहत…!!
तभी आतुर हूँ एक नवचेतन की
धुरी पाने को…!!
शनैः शनैः शाब्दिक निशा
गुज़रेगी एक उजली रचना
की सुबह पाने को…!!
©सुरेखा अग्रवाल, लखनऊ उत्तरप्रदेश
परिचय- कई साझा संग्रह का प्रकाशन, युवा प्रवर्तक, मुक्तछंद, आलेख व लघु कथा का प्रकाशन राष्ट्रीय व स्थानीय समाचार पत्रों में।