लेखक की कलम से

मधुबाला …

सूने गुरुद्वारे, सूना शिवाला, 

सूनी पड़ी हर सू पाठशाला।

कर के बन्द मंदिर-मस्जिद  ,

वो खोल बैठे लो मधुशाला।

खुश होकर घूम रहा आज ,

सूनी सड़कों पर मतवाला।

गले लगाकर मिल रहे सब  ,

मुद्दत बाद मिला पीनेवाला।

भूल गए राशन की लाइन,

देखी कतार दरे – मधुशाला।

राजस्व की याद उसे ही आई,

राशन लाया जो लूंगी वाला। 

क्या करेगा कोरोना उसका ,

हाथ में जिसके हो मधुहाला।

अर्थ व्यवस्था की व्यवस्था में ,

सज गयी फिर से मधुबाला।

घर में बैठे-बिठाये लोगों को ,

राह दिखा रही संध्याबाला।

द्वार खुला आओ पीने वालों ,

कब से खाली बैठी साकीबाला।  

दुःख-दर्द, थकान मिटा अपनी ,

थाम हाथ में हाला का प्याला।

पी के भूल जाएगा सब कुछ ,

मस्जिद हो, या हो शिवाला।

क्या सोचे आके मयखाने में, 

बुझा दिल में लगी ज्वाला। 

पी जब तक है, जिस्म-ओ-जां,

तेरे बाद रोयेगा, रोने वाला।

मौत बंट रही जब बाजारों में,

करेगा क्या, निराश रखवाला। 

©विनोद निराश, देहरादून, उत्तराखण्ड

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