लेखक की कलम से

नारी: पैसा नहीं, जो हिसाब दूं …

 

किस-किस का किस-किस को हिसाब दूं,
मैं पैसा नहीं हूं, न ही नोंटो का बंडल,

सुबह उठने से लेकर रात सोने तक का,
किन पल और लम्हों का हिसाब दूं,

किन ममता के धागों का हिसाब दूं,
खून में बहती सहनशीलता का हिसाब दूं,

मन में दबी कुछ आकांक्षाओं का हिसाब दूं,
सांवले काले रंग रुप का हिसाब दूं,

सब्जी से लेकर राशन तक के मोल का हिसाब दूं,
घर और गृहस्थी सहेजने का हिसाब दूं,

खाना पकाने से परोसने तक का हिसाब दूं,
तिजोरी में अर्थव्यवस्था,कुछ गहनों का हिसाब दूं,

दान दहेज में किसी कमी का हिसाब दूं,
मासिक पीड़ा या सामान्य प्रसव के दर्द का हिसाब दूं,

कोख से बेटा न जन्मा तो फिर इसका क्या हिसाब दूं,
या फिर उजड़ी कोख और बाझंपन का हिसाब दूं,

सात फेरों से आजीवन साथ निभाने तक का हिसाब दूं,
कदम से कदम मिलाकर चलने का हिसाब दूं,

विदाई की डोली में बदली अर्थी का हिसाब दूं,
या ईश्वरीय देन जन्मी नारी का हिसाब दूं,

कभी मांगा है क्या मैनैं तुमसे,
मेरे अस्तित्व का हिसाब जो बचपन से दिया गया मुझे ??

 

©अंशिता दुबे, लंदन

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