लेखक की कलम से

माँ …

ममता की सम्पदा है, स्नेह की निधि है।

माँ का है मन सुकोमल, वो तो सरल, सुधि है।

माँ जैसा कोई जग में, पर्याय ही कहाँ है,

दुविधाएं दूर करती, माँ ऐसी प्राविधि है।

 

माँ साथ है जो अपने, तो बचपना है कायम,

माँ का दुलार ऐसा, के घास हो मुलायम,

माँ के बिना तो जीना, लगता है खाली, खाली,

माँ रंग है फागुन का, माँ से खिले दिवाली।

माँ ने हमें है पाला है, बड़े प्यार से, जतन से ,

हर दर्द मिट गया है, माँ की मधुर छुअन से।

माँ है नदी शहद की, माँ नील सा गगन है,

माँ शब्द तुमको मेरा, हर बार ही नमन है।

 

माँ स्वार्थ  से रहित है, न ही कोई बदी है।

माँ का है मन सुकोमल, वो तो सरल, सुधि है।

 

पांवों में छाले थे पर, गोदी हमें उठाया,

हम लड़खड़ाके गिरते, चलना हमें सिखाया।

माँ तूने हमको खुशियों के, फूल ही दिए हैं ,

संतान हित में तुमने, अश्रु बहुत पिए हैं।

ममता भरी तपस्या की नायिका हो माँ तुम,

लोरी सुनाने वाली हाँ गायिका हो माँ तुम।

माँ ” देव ” के शब्दों का उपहार तुम पे अर्पण।

माँ हम तेरी परछाई, माँ तू हमारा दर्पण।

 

माँ तुझसे ये धरा है, ब्रह्माण्ड है , सदी है।

माँ का है मन सुकोमल, वो तो सरल, सुधि है। ”

 

©चेतन रामकिशन देव, गजरौला, यूपी

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