लेखक की कलम से

काले नहीं थे कृष्ण…….

बालपन से सुन सुन कर ताने
वह सहमत हो चली है अपनी कुरूपता से
नया कपड़ा खरीदतें हुए
छं।टती है फीके रंग
सुनती आयी है हमेशा
चटक रंग फबते है गोर वर्ण पर
वैसे उसे पसन्द है काही मैरून और समुंद्री गहरा नीला
आँखों में चुपके से लगा कर काजल
पोंछ देती है अगले ही पल
इस डर से की कही कोई देख न ले
अमावसी चाँद के मात्थे पर लगा अदृश्य काला टिका
थिरकते कदम लड़खड़ा जाते है यकायक
दबी आवाज में उठती हुई फब्तियां सुनकर
कव्वा चला हँस की चाल
कभी साहस भी करती है नकारने का
दर्पण में निहारती हुई खुद को
तान लेती है सीना
‘कौन कहता है क़ी मैं खूबसूरत नहीं ‘
‘अब नही हो तो नहीं हो ‘कह कर
सार्वभौमिक सत्य सी सिद्ध कर दी जाती है उसकी श्यामल देह
फर्राटा भरती आवाज कांपने लगती है अचानक
जब मुह बिचका कर होंठ दबाए हँस जाती है सहेलियां
नाम से ज्यादा दिलचस्पी
उसके पीछे चिपके हुए शब्दों में दिखाते है लोग
लगने लगे है मिथ्या सूर के पद और मीरा के गीत
गोपियों की रासलीला गोरी राधा का प्रेम
चलो मान भी लिया जाए इन्हें सत्य
तो फिर काले नहीं होंगे कन्हैया
हो ही नहीं सकता
पूछती है…
बताओ कान्हा गोरे थे न तुम
तुम्हें तो सब प्रेम करते थे मनमोहन
फिर काले कैसे हुए
मुझे तो कोई नहीं चाहता कृष्ण

©चित्रा पवार, मेरठ यूपी

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