लेखक की कलम से

मैं खोने लगी हूँ …

 

 

अपनी ही अनचाही ओढ़ ली गई चुप्पी में

गर्मियों की भरी दोपहर में

जैसे सब गलियां, घर, सड़के

पेड़, चिड़िया, गिलहरी सो गए लगते हैं

फिर सांझ ढले जैसे कुनमुनाते हुए से

हवा के हल्के हल्के झोंकों से

नींद की खुमारी उतारते  से जागते हैं

 

बाहर   आम ले लो ,

आम ले लो की पुकार लगाते

किसी रेहड़ी वाले की आवाज पर

मैं भी चुप्प की चादर से बहर निकल

आम वाले को आवाज लगाती हूँ तो

अंदर ही घुट कर बंद हो जाती है आवाज़

 

और

रेहड़ी वाला दूर निकल जाता है

 

महसूस होता है

सदियों की चुप्पी के बाद  तो बोलना और भी

कितना मुश्किल, व्यर्थ लगता होगा ना

 

कितना कुछ कहना चाहा

बोलना चाहा मगर

किसी ने समझना नहीं चाहा

तो बोलने का मन नहीं किया

चुप लगा ली

 

हर चुप्पी रहस्यमयी नहीं होती………

 

      ©सीमा गुप्ता, पंचकूला, हरियाणा      

 

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