लेखक की कलम से

गुफ़्तुगू …

अपने आशियाने की गरिमा है तुम्हारे मौन में दबी असंख्य अहसासों की गूंज, क्या मन नहीं करता तुम्हारा की इस मौन के किल्ले को तोड़कर अपने अंदर छुपी हर अच्छी बुरी संवेदना को बांट कर निज़ात पा लो..!

चलो आज तुम मेरे सारे सुख बांट लो मैं तुम्हारे सारे गम बांट लूं..

सुनों आज दिल के किवाड़ खोल दो ना सालों से तुम अपने अंदर शब्दों की नगरी बसाए हो..

तो क्या हुआ की तुम मर्द हो, एक दिल तुम्हारे अंदर भी धड़कता है दर्द, खुशी, अहसास महसूस करता है..!

ज़िंदगी के हर रंग को क्यूं घोलते हो अंदर ही अंदर,

कब तक चुप रहोगे तुम.? कब तक मौन रहोगे..?

और कब तक छुपाते फिरोगे मुझसे अपने अंदर उठते बवंडर को..!

अपनी वेदना को, आखिर बहा क्यूं नहीं देते अपने अंदर उबल रहे ज्वारभाटा को जो अंदर ही अंदर पिघला रहा है निरंतर तुमको..!

दो आंसू बहा दो मेरे आँचल में समेट लूंगी तुम्हारे अस्तित्व को अपने अंदर, अर्धांगनी हूं दे दो ना इतना हक,

सुख की छाया में नाजों से रखा पूरे परिवार को..!

देखा है मैंने तुम्हें खुद से उलझते, द्वंद को पालते, मर्द मानों मौन के लिए जन्मा हो..

सुख बांटते थक गई हूं चुटकी भर अब खुद को बांटो न मेरे साथ,

मेरे हर सपने को पूरा किया हम आपकी छत्रछाया में महफ़ूज़ से सुकून सभर ज़िंदगी जीते रहे..!

हक अधिकार तुम देते रहे क्यूं कभी अपेक्षा के हकदार नहीं बने,

जानती हूं आप हमारे अस्तित्व की नींव हो, ढो रहे हो अकेले..

कई बार देखी है मैंने तुम्हारे चेहर पे कुछ चिंतित लकीरें,

महसूस की है हरदम हमसे कुछ छुपाने की नाकाम कोशिश..

चलो ना आज सिर्फ तुम कहो और मैं सुनूं,

जान सकूं तुम्हें, समझ सकूं तुम्हें

तुम्हारी हृदय वेदना को अपने दामन में समेट लूं, उड़ेल दो सारी वेदनाएं,

सारी संवेदनाएं अपनी मेरे सामने..!

तुम्हारी चुप्पी दर्द देती है मुझे

मैं चाहती हूं तुम्हें सुनना, गुफ़्तगू करना

तुम करो गुफ़्तगू मुझसे,

एक मर्द के दायरे से बाहर निकलकर मेरे अपने बनकर, मेरी आंखों में झांककर सब कुछ उड़ेल दो..!

कुछ मेरे हिस्से का मुझे भी महसूस करने दो,

जैसे रात के आँचल में छुपकर चांद अपना वजूद सौंप देता है अपनी चांदनी को..!

और ओस धुली कायनात जैसे हल्की साफ सुंदर दिखती है ठीक वैसी रोशनी आपके चेहरे पर देखना चाहती हूं..

सागर भरा है आपके अंदर जो सालों से बस एक कतरा बांट लो मुझसे,

मैं किसी से नहीं कहूंगी की मेरे वो भी रोना जानते हैं..!

तो क्या हुआ की तुम मर्द हो, मर्द को भी दर्द होता है..

एक दायरे की बंदिश छंटने दो, मासूम बन जाओ मेरी हथेलियों पर रख दो अपना ब्रह्मांड..

हर आधे की भागीदार हूं तो ये क्यूं नहीं ? मुस्कुराकर चलो डूब जाएं गुफ़्तगू में..!

सालों से मैं कहती हूं तुम सुनते हो,

आज मैं खामोश हूं, चुप हूं तुम कहते रहो इस शाम को मेरे नाम कर दो,

ओर ये लम्हें यहीं ठहर जाएं।।

©भावना जे. ठाकर

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