घनश्याम ने कहा- टीकर छात्रावास सबसे उपयुक्त है कलेक्टोरेट के लिए
राजनीति नहीं होनी चाहिए जिला मुख्यालय के लिए
गौरेला। गौरेला, पेंड्रा व मरवाही के नव जिला मुख्यालय को लेकर विवाद थमने का नाम नहीं ले रहा है। अब इसमें गौरेला के स्थानीय निवासी व जिला कांग्रेस के संयुक्त महामंत्री घनश्याम ठाकुर ने टीकर गौरेला में जिला मुख्यालय बनाने का पुरजोर समर्थन किया है। उन्होंने दूरी व आदिवासियों के नाम पर जिला मुख्यालय पर राजनीति करने वालों से कहा कि संरक्षित बैगा प्रजाति से भी पूछ लिजिए कि उनको जिला मुख्यालय कहाँ चाहिए?
- गौरेला से छिंदपानी 40 किमी
- गौरेला से ठाडपथरा 45 किमी
- गौरेला से कबीर चबूतरा 48 किमी
- गौरेला से पोंडकी (करंगरा) 40 किमी
- गौरेला से भौरोसांग 35 किमी
- गौरेला से बस्ती बगरा 45 किमी
उन्होंने कहा कि इन सभी स्थानों पर भारत के विलुप्त होती मानव समाज की विशेष सरंक्षित जाति “बैगा” समाज के लोग रहते हैं। जिन्हें भारत के राष्ट्रपति के द्वारा विशेष संरक्षण प्राप्त है। उन्होंने मुख्यालय के नाम पर राजनीति करने वालों पर कटाक्ष करते हुए कहा कि आज आजादी के बाद भी इस जाति के लोग समाज की मुख्यधारा से नहीं जुड पाए हैं। शासन द्वारा समय-समय पर इनके लिए बैगा प्रोजेक्ट नामक भारी-भरकम परियोजना लागू की लेकिन वह केवल एनजीओ और सरकारी खानापूर्ति में रह गई। उन्होंने दूरी के नाम पर अन्यत्र जिला मुख्यालय बनाने पर आपत्ति दर्ज करते हुए कहा कि
आज जब जिला मुख्यालय को लेकर लोग बेलझिरिया, उषाढ, कटरा की दूरी गौरेला से 45 किमी बता रहे हैं तो यह संरक्षित जाति बैगा भी तो उतने ही दूरी पर बसे हैं।
हां फर्क इतना है कि बेलझिरिया, उषाढ़, कटरा के लोगों को आवागमन के लिए हर आधे घंटे में लगी लगाई बस मिल जाती है। वे मरवाही-कोरिया जिले के स्टेट हाईवे से जुड़े हैं और आजादी के इतने वर्षों के बाद भी उनका रहन-सहन क्रिया-कलाप लगभग शहरिया ही है, लेकिन आज बैगाओं के इन गांवों जाइए जहां वे जिला स्तरीय स्वास्थ्य सुविधाएं, सरकारी नौकरी, शिक्षा, आवागमन के साधन से कोसों दूर हैं।
उन्होंने तर्क देते हुए कहा कि आज भी बैगा जाति के लोग झोपड़ियों में निवास कर रहे हैं, उनकी जिंदगी खस्ताहाल है। पंहुचविहीन क्षेत्रों में इनका निवास है जहां लोग पैदल नहीं चल सकते ऐसे दुर्गम्य स्थानों पर रहते हैं, पहाडों से निकलने वाले झरने, झिरिया, ढोणी से ये लोग पानी पीतें हैं, बेलझिरिया, कटरा, उषाढ में तो आज मिनरल वाटर भी मिलता है।
बैगा अपने बस्तियों में अर्धनग्न रहने को विवश हैं। महिलाएं हरे और नीले रंग की एक धोती पहनकर और पुरुष एक धोती व कमीज में गुजारा करते हैं। घर के छोटे बच्चों को हम आप दिनभर माटी और धूल में सने आसमानी शर्ट और नीली हाफ पैंट में देख सकते हैं। वह भी यह कपड़ा स्कूल का रहता है जो सरकार की ओर से मुफ्त में मिलता है। बैगा बच्चे, महिला-पुरुषों के पास तपती धूप में बचने पैर में पहनने के लिए चप्पल-जूता तक नहीं रहता है।
बेचारे सप्ताह में एक दिन आसपास से आटो, मैजिक, पिकअप, ट्रक में बैठकर मंगलवार को गौरेला बाजार करने आते हैं। यहां एक हफ्ते का राशन बटोर कर लेकर जातें हैं।
इन बैगा क्षेत्र में रात बिकाल कोई बीमार पड़ जाए तो आफत सी आ जाती है। वाहन का आभाव। मोबाइल नेटवर्क का नहीं मिलना। ऐसे में बेचारे लोगों को मरीज को किसी जुगाड़ से ही गौरेला लाना पड़ता है।
अब बताइए जिला स्तरीय सुविधाओं की किसको आवश्यकता है? सबसे प्रबल दावेदार बैगा हैं। और जो लोग जिला मुख्यालय के दूरी का हवाला देकर बेलझिरिया, उषाढ, कटरा का आड़ ले रहे हैं। बेलझिरिया से, कबीर चबूतरा से, छिंदपानी से, भैरोसांग से, धरमपानी से, बस्ती बगरा से, पोडंकी करंगरा से भी गौरेला 50 किमी की दूरी पर है।
यह कहना उचित है कि गौरेला नगर मध्य में बसा हुआ है, इसीलिए सभी के मध्य होने के कारण और संरक्षित जाति बैगाओं को मुख्यधारा से जोड़ने और उनको जिला स्तरीय सुविधाओं के लिए “जिला मुख्यालय गौरेला” ही उचित है।