लेखक की कलम से

स्त्री …

 

 

 

वीरांगना बन युद्ध जीत जाती

 

ज़ुए में किंतु अबला हार जाती

 

कठपुतली जब स्त्री हो जाती

 

अपना सार वह  भूल जाती

 

किरदार निभाकर वो अपना

 

अपने हिस्से कीहँसी दे जाती

 

हर ओर से ख़ुद को समेटे हुए

 

अपनी राह पे निकल जाती

 

बिना सोचे समझे हिम्मतसे

 

मँझधार  में खड़ी हो जाती

 

ग़ैरों  से क्या गिला शिकवा करे

 

अब तो ख़ुद से ही वो लड़ जाती

 

क्या बताऊँ वो एक स्त्री है ,

 

अपनी उम्र से बड़ी हो जाती

 

सवाल बन के जब खड़ी हो जाती

 

रात सलवटों में फिर अनुत्तर रह जाती

 

घर बिखर जाता है जब वो सपनों को बुनती है

 

ख़ुद बिखर जाती है जब अपनों को चुनती है

 

वो प्रेम रूप बीज कोख से अपनी उपजाती

 

विरहणी सी ,इठलाती , निर्झर सी हँसती गाती

 

जब ममत्व से सब दारुण दुख हर लेती हो

 

तब तुम प्रकृति स्वरूपा -शक्तिस्वरूपा कहलाती हो

 

 

©डॉ. निरुपमा वर्मा, एटा उ.प्र.

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