लेखक की कलम से

मजदूरों के सबसे बड़े महानायक बाबा साहब…

पिछले सालों में लॉकडॉउन के दौरान प्रवासी मजदूरों के अत्यंत दयनीय हो गए हाल पर पूरा देश स्तंभित हो गया था।  मजदूरों के साथ ऐसी स्थिति के लिए खुद प्रधान मंत्री ने भी माफी मांगी थी और अपनी असमर्थता पर अफसोस भी जताया था। मजदूर दिवस के मौके पर सोशल मीडिया में भी इन मजदूरों की दुर्दशा पर बहुत चर्चा हुई थी। लेकिन अपने देश में मजदूरों के हित के लिए अपनी जान की बाजी लगाने वाले कलजयी राष्ट्र निर्माता बाबा साहेब आंबेडकर के योगदानों की कोई चर्चा नहीं हुई। जबकि इस सच्चाई को कोई चुनौती नहीं दे सकता कि अपने देश में बाबा साहेब ही ऐसे अकेले महा नायक हैं, जिन्होंने गुलाम भारत के दिनों में ही मजदूरों के हित में सबसे पहले और सबसे ज्यादा बुनियादी काम किया,जिसके कारण मजदूरों के बहुत से हित सधे।

अपने देश में मजदूरों की दशा सुधारने के लिए उनके अनेक योगदान की आज न केवल प्रासंगिकता बढ़ी है बल्कि उन्हें लागू कर हम अपने देश के आम से आम लोगों को आर्थिक रूप से आज भी आत्मनिर्भर बना सकते हैं। हम बाबा साहेब के योगदानों को संविधान के निर्माण   तक सीमित कर देते हैं, लेकिन दलितों,शोषितों,महिलाओं और मजदूरों के हित में किए उनके क्रांतिकारी प्रयत्नों पर चर्चा करने से भी कतराते हैं।

अगर बाबासाहेब आंबेडकर की नीतियों को समय रहते देश में अपना लिया जाता तो आज लॉक डाउन के बाद जिस तरह सड़कों पर अपने गांव को लौटने के लिए विभिन्न शहरों से मजदूरों के हुजूम निकले, वे नहीं निकलते। बाबा साहेब की नीतियां लागू कर दी गई होती तो इन मजदूरों को गांव से पलायन भी नहीं करना पड़ता।  मजदूरों के लिए गांव में ही न्याय संगत परिवेश बन गया होता और आज वे आत्म निर्भर हो गए होते। किसान आत्म हत्या नहीं करते  लेकिन आजाद भारत में बाबा साहेब की नीतियों की उपेक्षा कर दी गई। नतीजा यह हुआ कि अपने देश में मजदूरों का शोषण कभी खत्म ही नहीं हुआ । शोषण खत्म करने के लिए कोई कोशिश सरकारों ने भी पूरी इमानदारी से नहीं की । हाल के कुछ बरसों से जबसे अपने देश में नई आर्थिक नीतियां लागू हुई हैं तब से मजदूरों पर कोई बात भी नहीं की जा रही थी।

मजदूर दिवस की प्रासंगिकता भी ख़तम होती जा रही थी। ऐसे में मजदूरों के हित के लिए सबसे पहले बुनियादी संघर्ष करने वाले बाबा साहब को खासकर सत्ता की राजनीति करने वाले नेता,नीति कार और नौकरशाह क्यों याद करेंगें। नई आर्थिक नीति लागू होने के बाद अमीरों की तरफ झुकी हुई सरकारों के रवैए के कारण सबसे ज्यादा दुर्गति मजदूरों और किसानों की ही होती गई है। शहरों में मजदूरों को रोजगार के नाम पर शोषण के दुष्चक्र में ही फसना पड़ता रहा है और इसे पिछले एक महीने से अपने देश की सड़कों पर पैदल चल रहे मजदूरों की दर्द भरी दस्तानों ने साबित कर दिया है।

बाबासाहेब आंबेडकर का शहरी और कृषि क्षेत्रों के मजदूरों के लिए महत्वपूर्ण योगदान रहा है। उन्होंने गांव में खेती में सुधार और जमींदारों, किसानों और खेतिहर मजदूरों के बीच में न्यायिक संबंधों के विकास के लिए भी अनेक सुझाव दिए और उन्हें लागू करने के लिए अपनी तरफ से संघर्ष करने में कोई कमी भी नहीं छोड़ी। वे देश के अकेले ऐसे महानायक हैं जिन्होंने इस देश की बुनियादी समस्याओं को बिल्कुल अच्छी तरह समझा था और उसके निदान के लिए उचित प्रस्ताव रखा,कई क्रांतिकारी विधेयक पेश किए और इसके लिए लगातार संघर्ष भी किया।

बाबा साहेब खेती को उद्योग का दर्जा देने की वकालत करते थे और साथ ही देश की समस्त कृषि भूमि का राष्ट्रीयकरण करने और सामुदायिक खेती शुरू करने पर जोर देते थे। बाबा साहेब के इन विचारों को अपने देश में लागू किया गया होता तो  अपने देश में सड़कों पर भूखे, प्यासे, तड़पते, पैदल चलते और मरते हुए मजदूरों के दिल दहला देने वाले दृश्य देखने को हम अभिशप्त नहीं होते।

आजादी के बाद अनेक कथित कल्याणकारी प्रयासों के बावजूद गांवों में जमींदारों का वर्चस्व बढ़ता ही गया। दबंगों ने निर्बलों की जमीन पर कब्जा करना जारी रखा। पुलिस और न्यायिक व्यवस्था भी पीड़ितों के पक्ष में नहीं रही।  सरकार के प्रोत्साहन के अभाव में किसान कंगाल होते गए और खेतिहर मजदूरों की कतार में खड़े हो गए। इसके बाद उनका शहरों की ओर पलायन शुरू हुआ जो अब लॉक डाउन के बाद फिर से वापस गांव की ओर कूच कर रहे हैं। यही समय है कि हर चीज को मुमकिन कर देने वाले लोग बाबा साहेब की नीतियों के हिसाब से गांवों में कोई संरचना करे तो गांवों की ओर वापस लौट रहे लोगों को व्यवस्थित जिंदगी जीने के अवसर मिलेंगे और देश भी आंतरिक रूप से मजबूत बनेगा। यह हम सभी के लिए दुर्भाग्य है कि स्वार्थी वर्ग के लोग बाबा साहब के क्रांतिकारी विचारों की तौहीन करते रहे और पहले से ही मजबूत और षड्यंत्र कारी तबकों को मजदूरों पर जुल्म करने की छूट दी जाती रही।

बाबासाहेब आंबेडकर ने गोलमेज सम्मेलन में अवसाद ग्रस्त वर्गों के प्रतिनिधि के रूप में क्रूर जमींदारों के चंगुल से किसानों और मजदूरों को आजाद कराने के लिए आवाज बुलंद की। उन्होंने किसानों, भूमिहीनों और श्रमिकों की जरूरतों को पूरा करने और उनकी अनेक शिकायतों को दूर करने के लिए 1936 में एक व्यापक कार्यक्रम के साथ स्वतंत्र मजदूर पार्टी का गठन किया। 1937 में नवनिर्वाचित भारत सरकार अधिनियम 1935 के तहत बॉम्बे विधानसभा के पहले चुनाव में लड़ी गई 17 सीटों में से 15 सीटें जीतकर इस पार्टी ने शानदार सफलता हासिल की। 17 सितंबर,1937 को बांबे विधानसभा के पुणे सत्र के दौरान उन्होंने किसानों के विरुद्ध चल रही विभिन्न प्रथाओं को खत्म करने के लिए विधेयक भी पेश किए।

उन्होंने 12 जनवरी 1938 को इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी की ओर से किसानों के संघर्ष का नेतृत्व किया। इस दिन ठाणे, कोलाबा, रत्नागिरी सातारा और नासिक जिलों के हजारों किसान प्रदर्शन के लिए मुंबई आए थे । इन किसानों की मांग थी कि वतन प्रथा और खोटी प्रथा को जल्द से जल्द खत्म किया जाए। इसे समूल रूप से खत्म करने के लिए  बाबा साहब ने विधेयक भी पेश किए, क्योंकि वतन प्रथा के तहत थोड़ी सी जमीन के लिए महाड को पूरे गांव के लिए श्रम करना पड़ता था और अन्य सेवा भी करनी पड़ती थी। एक तरह से वे पूरे गांव के बंधुआ मजदूर होने को विवश होते थे। खोटी प्रथा भी अन्यायपूर्ण थी। इसे ख़तम करने के लिए भी उन्होंने  विधेयक पेश किया।  इस प्रथा के तहत एक बिचौलिया अधिकारी लगान वसूल करता था। इस बिचौलिया को ही खोट कहा जाता था। ये खोट खुद को स्थानीय राजा समझकर व्यवहार करने लगे थे और राजस्व का बहुत बड़ा हिस्सा अपने पास रखने लगे। इन खोटों में अक्सर सवर्ण जाति के लोग हुआ करते थे। वे लगान वसूलने के लिए किसानों पर बहुत अत्याचार करते थे। बाबा साहब किसानों और मजदूरों को न्याय दिलाने के लिए संगठित करते थे और उनके आंदोलन का नेतृत्व भी करते थे।

बाबा साहेब को इन योगदानों के लिए भी याद किया जाना चाहिए कि उन्होंने औद्योगिक विवाद विधेयक(1937) का जोरदार विरोध किया था,क्योंकि इस विधेयक के जरिए मजदूरों के हड़ताल करने के अधिकारों को छीना जा रहा था। भारतीय मजदूरों के अधिकारों की रक्षा के लिए बाबा  साहब ने देश में पहली बार यह कोशिश की। उन्होंने मजदूरों के हड़ताल करने के मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए एक लाख से अधिक मजदूरों की हड़ताल का नेत्तृत्व किया था।

वायसराय के कार्यकारी परिषद के श्रम मंत्री रहते हुए आंबेडकर के श्रम मामलों के ज्ञान पर समकालीन लोग हैरान हुए थे। उन्होंने मजदूरों के हक की सुरक्षा के लिए एक बहुत महत्वपूर्ण कार्य यह किया कि उन्होंने मजदूर संघों को मान्यता दिलाई। बाबा साहेब ने इंडियन ट्रेड यूनियन (संशोधन) विधेयक 8 नवंबर 1943 को पेश किया। इस विधेयक ने नियोक्ताओं को और व्यापार संघों को मजदूर संघों को स्वीकार करने के लिए मजबूर किया।

बाबा साहेब ने महिला मजदूरों के लिए तब जबरदस्त काम किया जब महिलाओं को कहीं भी समान महत्व नहीं दिया जा रहा था। कोयला खदानों में महिलाओं के रोजगार पर रोक लगाई जा रही थी तो बाबा साहेब ने खान मातृत्व लाभ(संशोधन) विधेयक 1943 के जरिए मात्तृत्व लाभ के साथ महिला मजदूरों को सशक्त बनाया था। इसके अलावा उन्होंने सफाई कामगार के लिए भी अभूतपूर्व कार्य किया। उनके आर्थिक,सामाजिक और शैक्षणिक समस्याओं के समाधान के लिए समग्र प्रयास किया।

-हेमलता म्हस्के

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