लेखक की कलम से

स्वतंत्रता आंदोलन की सहयोगी: मुजरेवालियाँ

16 से 20 शताब्दी की तवायफ, बाईजी, गायिका और नृत्यांगनाओं की जिंदगी के पन्ने पलटें तो पता चलता है कि ये कोठे पर अंग्रेज सिपाहियों के लिए गाने जरूर गाती थीं लेकिन स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों संग बैठकें भी करती थीं। कहा जाता है कि 1 जून 1857 को कानपुर में क्रांतिकारियों की एक बैठक में नाना साहब, तात्या टोपे के साथ सूबेदार टीका सिंह, शमसुद्दीन खां और अजीमुल्ला खां के साथ अजीजन बाई भी शामिल हुई थी। यहीं इसी बैठकी में हाथ में गंगाजल लेकर इन सबने अंग्रेजों की हुकूमत को जड़ से उखाड़ फेंकने का संकल्प लिया था। अजीजन बाई एक नर्तकी थीं परंतु सिपाहियों से उन्हें बेहद स्नेह था और सिपाहियों को भी उस पर पूरा भरोसा था। इसी तरह बेगम समरु की भी कहानी काफी प्रेरक है। अमृतलाल नागर की किताब ‘ये कोठेवालियां’में तवायफों की जिंदगी को नजदीक से जाना जा सकता है।

गाँधी जी की भक्त विद्याधरी देवी भी थीं, जिन्होंने 1930 में गाँधी के विदेशी बहिष्कार आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाई और उनकी प्रेरणा से ‘तवायफ संघ’ की स्थापना की। ये ‘तवायफ संघ’ स्वतंत्रता संग्रामियों को हर संभव मदद करता। विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार इन्होंने सर्वप्रथम किया तथा अन्य गायिकाओं से भी वो इसके लिए आग्रह करती थी । गांधी के स्वदेशी आंदोलन में विद्याधारीबाई, हुस्नाबाई ने बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया।लेकिन स्वतंत्रता संग्राम से जुड़ी किताबों कही इनका ज़िक्र नहीं मिलता है।

इनके उत्सर्गमय जीवन और संगीतसेवा के बाद भी इनकी बेहद नगण्य चर्चा ही मिलती है।

जब एक राष्ट्र की परिकल्पना हुई तो तवायफों, बाईजी का जिक्र जरूर होना चाहिए। क्योंकि ये वो औरतें हैं, जिन्होंने न केवल अपने नृत्य- गायन से संगीत की एक परंपरा को कायम किया बल्कि समयानुसार स्वयं को ढालकर भक्ति कलाम द्वारा देशभक्ति की भावनाओं को प्रबल किया। तवायफों में मुस्लिम और हिंदू भी होती थीं लेकिन उनके लिए देश पहले था। 1920 में बनारस गांधी के बनारस दौरे में 26 नवंबर की दोपहर को 20,000 लोगों की एक विशाल भीड़ जमा हुई। गांधी के लिए अज्ञात, तवायफों का एक समूह, विद्याधरी बाई के नेतृत्व में, टाउन हॉल में विशाल सभा का हिस्सा था। इन्होंने समाज की मुख्यधारा से स्वयं को तथा अन्य गायिकाओं को भी जोड़ने का प्रयास किया।साथ ही संगीत को सम्मानित मंच तक ले जाने का महनीय कार्य किया।

बीसवीं सदी के तीसरे दशक में गांधी जी द्वारा महिलाओं से देश की आज़ादी के लिए घरों की चारदीवारी से बाहर आकर उनके साथ जुड़ने के आह्वाहन और राममोहन रॉय और ईश्वरचंद विद्यासागर जैसे तत्कालीन समाज – सुधारक ने वेश्यावर्ग की सामाजिक स्थिति जैसे विषयों गंभीर रुचि लिया।धीमे – धीमे उस पूर्वाग्रहग्रस्त और जकड़न भरे माहौल में ब्रह्मसमाज, आर्यसमाज, एवम् प्रार्थनासमाज सरीखे सुधार – आंदोलनों ने स्त्री शिक्षा तथा वेश्याओं की दशा को लेकर एक उदार नई मानसिकता के बीज बोना शुरू किया।

गौहर जान से पहले भी रिकॉर्ड हुए थे —

गायिका गौहर जान को कौन भूल सकता है जिन्होंने लिखा कि ‘मदीना में हजरत ने मनाई होली’। यदि इन गानों और इनके अंदर छिपे संदेशों को देखें तो इनके भीतर का देश प्रेम दिखाई पड़ता है।इस संदर्भ में मृणाल पांडे ने एक घटना का जिक्र किया है जिसके अनुसार –

“सन् 1920 में जब गांधी कलकत्ता में स्वराज फंड के लिए चंदा जुटा रहे थे तब उन्होंने गौहर जान को बुलवाकर उनसे भी अपने हुनर के माध्यम से आंदोलन के लिए चंदा जुटाने की अपील की। गौहर जान चकित और खुश दोनों हुई। गौहर ने बापू से ये आश्वासन ले लिया वह एक खास मुजरा करेंगी जिसका सारा फंड को स्वराज को जाएगा और गांधी जी भी वहां आएंगे। बापू राजी भी हो गए। किंतु ऐन वक्त आ न सके। कहते हैं उस कार्यक्रम में 24000/. की आमदनी हुई थी जो बड़ी रकम थी। गौहर जान रूठी थीं । गांधी जी ने जब चंदा हेतु मौलाना शौकत अली को उनके घर भेजा तो दुनिया देख चुकी गौहर ने उनको कुल 12 हजार रुपए यह कहते हुए थमाए की बापू ने अपना आधा ही वचन निभाया सो वे भी आधा ही चंदा दे रही है ।”

गौहर जान ने कबीर को गाया :

मैं केहि समझाऊँ सब जग अंधा,

एक दूइ होय उनहीं समझाउँ ,

सबहि भुलाना पेट का धंधा। ‘

( मृणाल पाण्डे,ध्वनियों के आलोक में स्त्री , पृ – 60)

शुरुआती दौर में गीत-संगीत की जितनी भी रिकॉर्डिंग हुई, उनमें गौहर जान, छप्पन छुरी, रसूलन, मुन्नी बेगम, अख्तरीबाई फैजाबादी, रसूलन बाई, धेला बाई, चवन्नी बाई, सिद्धेश्वरी, विद्याबाई जैसी तवायफ़ों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस संबंध में आम धारणा है कि पहला रिकॉर्ड गौहर जान की आवाज़ में था किंतु अमरनाथ शर्मा के अनुसार गौहर जान से पहले भी रिकॉर्ड हुए थे।उनका कहना है कि –“आम धारणा यह है कि गौहर जान की रिकॉर्डिंग पहली रिकॉर्डिंग है,लेकिन ऐसा नही है।जब मिस्टर गैसवर्ग इंडिया में आए और उन्होंने रिकॉर्डिंग शुरू की तो सबसे पहले उन्होंने शशि एण्ड फनी बाला को रिकॉर्ड किया।ये दो नॉच गर्ल्स थीं,जी 15 – 16 साल की थीं और कलकत्ता थियेटर में काम करती थीं।उनकी रिकॉर्डिंग पहली रिकॉर्डिंग है।अगली रिकॉर्डिंग जो हुई वह शेहला बाई की है। हरिमति,एक फीमेल आर्टिस्ट थीं,बंगाल की थीं,फिर उनका रिकॉर्ड हुआ।गौहर जान की रिकॉर्डिंग तेरह भाषाओं में दो दिनों के रिकॉर्डिंग सेशन में हुई।”(छोटी – छोटी मुलाकातें,शरद दत्त,संपादक -अभिषेक कश्यप, पृ -457)

 

नृत्यांगनाएं भरती थीं सबसे अधिक टैक्स —

व्यापारिक दृष्टिकोण से, आर्थिक दृष्टिकोण से भी इन गायिकाओं ने अपना महत्वपूर्ण दिया था।1862 में जब सर्वाधिक इनकम टैक्स और प्रॉपर्टी टैक्स देने वालों की श्रेणी बनाई गई तो यह जानकर हैरानी हुई कि आभूषण विक्रेता दूसरे नंबर पर थे, जबकि पहले नंबर पर नृत्यांगनाएं थीं। तीसरे नंबर पर इनका नृत्य-संगीत देखने वाले दर्शक होते थे। ये शहरी, ग्रामीण इलाकों में मकान समेत फैक्ट्रियों की मालकिन भी होती थीं। यही नहीं कई तवायफ़ों का जीवट ऐसा था कि वे राजे-रजवाड़ों के खत्म होने के बाद भी अपने कोठों पर कई ललित कलाओं को संरक्षण देती रहीं।

अतः केवल तवायफ, नर्तकी , गवनहारियांकह कर इनके योगदान को कमतर नहीं आंका जा सकता है।

 

©डॉ. विभा सिंह, दिल्ली                                                   

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