लेखक की कलम से

तुलिका ही मेरी मुझसे रूठ गई …

मेरी नज़्म की तिश्नगी जल गई है,

तेरी व्यथा कलम को खल गई है।

 

क्यूँ है उलझी तेरी ज़िस्त बेरंग सी,

हर खुशीयाँ आँसूं में ही ढल गई है।

 

क्या लिखूँ कसीदे तेरे नासाज़ हूँ मैं,

तुलिका ही मेरी मुझसे रूठ गई है।

 

फूलों की मल्लिका रानी बहारों की,

कमसिन सी काया क्यूँ मुरझा गई है।

 

मुखर थे लब कभी बातूनी नैंन तेरे,

होंठों पर आज खामोशी जम गई है।

 

खत्म भी कर दे तू ऐलान ए जंग कर,

हक अपना छीनने से पीछे हट गई है।

 

ज़िंदगी तुम्हारी सिर्फ़ सफ़हा भर नहीं,

दर्द और गम की किताब बन गई है।

 

सर उठाकर जीना अब तुम सीख लो,

दमन सहते कितनी सदियाँ बीत गई है।

 

अंधी इबादत छोड अब तू मर्दों की,

अपने सफ़र का तू मुकाम बन गई है।

©भावना जे. ठाकर

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