लेखक की कलम से

जयंती …

 

औद्यौगिक नगर, एक ही तरह के बने घर उसमें रहने वालों की जिंदगी का खाका लगभग एक जैसा, हां कभी कभी कुछ घटनाएं अलहदा होने का एहसास दिलाती।

एक ऐसे ही घर में एक महिला अपनीं तीन वर्ष की बच्ची के साथ रहती थी, रोजमर्रा़ की दिनचर्या पति की शिफ्ट ड्यूटी के हिसाब से चलती रहती, उस रात नाइट शिफ्ट थी। रात दस बजे पति के रवाना होने के बाद महिला भी सोने चली गई, सारा शहर नींद की आगोश में डूब गया।

अचानक करीब आधी रात पिछले आंगन के बरामदे में कुछ आवाज़ आई महिला जागी और सुनने की कोशिश करने लगी फिर सोचा शायद वहम है और लेट गई कुछ मिनटों के बाद आवाज़ फिर तेज़ होने लगी अब उससे रहा ना गया, उसने बंद खिड़की की फटों से झाँका तो उसके होश उड़ गये एक चोर धारदार हथियार से जाली काट रहा था, अब महिला पूरी तरह डर की जकड़ में थी, क्या करे? चिल्लाने का कोई फायदा नहीं क्योंकि बाकी घर इतने करीब नहीं थे कि वो चिल्लाये और लोग इकट्ठा हो जाये।

उसने फिर झांक कर देखा चोर जाली काटने में कामयाब हो रहा था, अब जल्द ही कुछ करना पड़ेगा, उसके दिमाग में एक विचार कौंधा और वह जोर जोर से चिल्लाने लगी अरे उठो देखो कोई बरामदे में घुसने की कोशिश कर रहा है और पास रखा पानी का गिलास ज़मीन पर पटक दिया, अब डर उस महिला को छोड़कर उस चोर को ज़कड़ चुका था। महिला के लाइट ऑन करने से पहले ही वो दीवार फांदकर फरा़र हो चुका था।

इस घटना की नायिका की जगह अपने आप को रखकर देखती हूं तो उसकी प्रत्यून्नमति की कायल हो जाती हूँ ये जीत तुम्हारी वो डर से निडर होने के सारे क्षण तुम्हारे….केवल तुम्हारे।

©वैशाली सोनवलकर, मुंबई

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