लेखक की कलम से

बुद्ध से संबुद्ध होना …

बुद्ध पूर्णिमा विशेष

 

सत्यता की खोज में सापेक्ष्य था संबुद्ध होना।

पूछिए अपने हृदय से ‘क्या सरल था बुद्ध होना’?

 

यामिनी की प्रौढ़ता में, वे चले जब त्याग आलय।

पर कपाटों से प्रिया औ पुत्र को देखे व्यथामय।

आह ! वे लौटे पुनः भीगे नयन को पोछते ही,

प्रेम आविल दृष्टि विह्वल ले रही थी अश्रु पर लय।

 

किंतु गति गतिशील थी,संभव नहीं था रुद्द होना।

पूछिए अपने हृदय से ‘क्या सरल था बुद्ध होना’?

 

एक दिक् में खड़े प्रियजन, एक दिक् में जग खड़ा था।

चयन करना भी कठिन था क्योंकि निर्णय भी बड़ा था।

छोड़ कर प्रियजन चले,संसार को प्रियजन बनाने,

सृष्टि हित सिद्धार्थ को ‘सिद्धार्थ’ को खोना पड़ा था।

 

लक्ष्य सम्मुख ही खड़ा अब व्यर्थ था अवरुद्ध होना।

पूछिए अपने हृदय से ‘क्या सरल था बुद्ध होना’?

 

भागना, वह था नहीं वह तो स्वयं से जागना था।

दूसरों को साधने से पूर्व निज को साधना था।

स्वांत के द्रुत भावनाओं से अहिंसक युद्ध करके,

सृष्टि के संज्ञान से पहले स्वयं को जानना था।

 

दूसरों के शुद्धि हित सापेक्ष्य था परिशुद्ध होना।

पूछिए अपने हृदय से ‘क्या सरल था बुद्ध होना’?

 

जानना था उन्हें,’यह सम्पूर्ण जीवन चक्र क्या है’?

जीव को घेरे हुये चिर-वेदना का वक्र क्या है?

‘प्राण क्या है,घ्राण क्या है, व्याधि माया मोह क्या है’?

और जीवन के तटों पर मृत्यु-वात्याचक्र क्या है?

 

व्यग्र थे वे देख,’दुख से सृष्टि का संरुद्ध होना’

पूछिए अपने हृदय से ‘क्या सरल था बुद्ध होना’ ?

 

वह महायात्रा सकल संसार के हित में हुयी थी।

सर्व जन के दुःख के संहार के हित में हुयी थी।

वह पलायन था नहीं कर्तव्य के निर्वहनता से,

बल्कि सत्कर्तव्य के संस्कार के हित में हुयी थी।

 

श्रेष्ठ था,सिद्धार्थ का संधान, सम्यक्-बुद्ध होना।

पूछिए अपने हृदय से ‘क्या सरल था बुद्ध होना’?

 

बुद्ध बनना उचित ही था,इस जगत के शुद्धि के हित।

ज्ञान का आगार,नैतिक भावना बाँटी अपरिमित।

व्यर्थ में ही युद्ध करना वीरता की स्तुति नहीं है,

जीत सकता है मनुज संसार सम्यक मार्ग से स्मित

 

दुर्गुणी जब प्रेम से सुधरे नहीं, तब क्रुद्ध होना।

पूछिए अपने हृदय से ‘क्या सरल था बुद्ध होना’?

 

बुद्ध यह कहते नहीं कि ‘त्याग दो संसार सारा’।

बल्कि जीवन काट निज,शील अष्टांगिक मार्ग द्वारा।

जीव-हिंसा त्याग, करुणा से करो सहयोग सबका,

सर्वदा संसार के कल्याण हित बनना सहारा।

 

‘सत्य से करना परीक्षण तथ्य का’, अनिरुद्ध होना।

पूछिए अपने हृदय से ‘क्या सरल था बुद्ध होना’?

 

शांति की संस्थापना में युद्ध एकल हल नहीं है।

लक्ष्य पूरण मार्ग केवल एक हो सकता नहीं है।

‘कृत्य का परिणाम सोचे ही बिना वह कृत्य कर दो’

बुद्ध प्रदत्त “आत्म दीपो भवः” यह कहता नहीं है।

 

शांति का अवलंब ले ‘अनिवार्य जब तक युद्ध हो ना’।

पूछिए अपने हृदय से ‘क्या सरल था बुद्ध होना’?

 

बुद्ध कहते-‘कर्मकाण्ड ये सर्वदा शाश्वत नहीं है’।

‘क्या सुरों के यज्ञ में असहायक पशु की बलि सही है’?

जीव के स्वच्छंदता पर मनुज का अधिकार कैसा?

‘हाय ! क्यों अस्पृश्यता के भाव से मंजित मही है’?

 

जाति से होता नहीं कुछ,’कर्म से संशुद्ध होना’।

पूछिए अपने हृदय से ‘क्या सरल था बुद्ध होना’?

 

दुःख के अवसान में जिसने प्रणय अधिकार छोड़ा।

राज्यपद,साम्राज्य, वैभव,सुखों का आगार छोड़ा।

धिक् सभी के दृष्टि में वह आज धूमिल हो रहा है !!!

आह ! जिसने इस सकल संसार हित संसार छोड़ा।

 

और जो सिखला गया निःस्वार्थ सबको शुद्ध होना।

पूछिए अपने हृदय से ‘क्या सरल था बुद्ध होना’?

 

सत्यता की खोज में सापेक्ष्य था संबुद्ध होना।

पूछिए अपने हृदय से ‘क्या सरल था बुद्ध होना’?

 

बुद्धपूर्णिमा की अनंत शुभकामनाएँ आप सभी को। बुद्ध सबको प्रसन्नता प्रदान करें।

 

©प्रफुल्ल सिंह, लखनऊ, उत्तर प्रदेश          

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