लेखक की कलम से
जीवन….
जीवन ऐसे ही बीत गया
झंझाबातों से जीत गया
कब धूप मिला, कब छांव खिला
धूप छांव से ही घिर गया!
पगडंडी के पथिक सभी
कुछ छूट गए, कुछ रूठ गए
यात्रा अविरल बह निकला
धाराओं का क्रम कहां छूटा!
स्मृतियों का ताना-बाना सा
कुछ खट्टी मीठी यादों का
हम ऋणि बने हैं उनके ही
जो जख्म दिए अविश्वासों का!
जीवन है नद सा बहता
एक दिन तो ठौर पाएगा
अज्ञात,अदृश्य से मिलकर ही
अलौकिक सा खिल जाएगा!
जीवन रैन-बसेरा सा
कुछ आए, विश्राम किए
बांधे बंधन कुछ अंतस में
फिर कहां मिले फिर कहां दिखे!