विश्वास …
राख से फिर आग बनने में
क्या पता तुमने ख़ुद को
कितना सुलगाया होगा,
कितने लोगों ने हवा
फूँकनी से
और कितने लोगों ने
शब्दों के शोलों से
इसे ज्वालामुखी
बनाया होगा ।
आज तुम चुप हो
क्या हार मान ली हालात से
दोष दे रही हो
तन्त्र को, सरकार को या फिर उस अनदेखी शक्ति को
मेरे साथ ही ऐसा क्यों
सोचती होगी
फिर सँभालती होगी अपने
मन में आने वाली नकारात्मक प्रतिक्रियाओं को,
याद आती होगी हर वो बात
जो नानी दादी की ज़ुबानी सुनी होंगी
‘ जो होता है अच्छा होता है ‘
असमय जीवन साथी का
का चले जाना
क्या अच्छा होता है?
ज़िन्दगी ने जो आईना दिखाकर
प्रश्न खड़े कर दिए
उनके उत्तर कहाँ से मिलेंगे
सोचती होगी ।
कब थी वो शक्ति मेरे साथ ?
कब चले वो कदम मेरे साथ ?
ये सोचती होगी ।
देखा था आज भी तुमने
दो ही पैरों के निशान
जब दी होगी अग्नि
तुम्हारे पुत्र ने
तुम्हारे जीवन साथी को ।तभी तुम्हारे
मन से आई होगी
एक आवाज़
अरे पगली
सम्भाल ख़ुद को
अपने जिगर के टुकड़े को
यह पग चिन्ह तेरे नहीं
मेरे हैं
तुम तो अभी तक मेरी
बाँहों में हो
विश्वास रखना तुम मुझपे
रहूँगा हरदम साथ तुम्हारे
हरगिज़ नहीं टूटने दूँगा विश्वास तुम्हारे।
यह थी उस शक्ति की
आवाज़ ।
©सावित्री चौधरी, ग्रेटर नोएडा, उत्तर प्रदेश