लेखक की कलम से
हवा हो जाना….
घूम आती हूँ अनजाने रास्तों पर
कभी आकाश, आकाश के पार
कभी धरती की कठोरता
कभी भुरभुरी कोमलता को छू लेती हूँ…..
समंदर के शहर की वासी नहीं हूँ
कभी देखा नहीं उसका अनंत विस्तार
बहुत भीतर जाकर मगर छूट जाती हूँ
निपट अकेली निज एकांत में….
कभी कभी तो घने जंगल में
खो जाती हूँ .. हवा की सरसराहट को
कान लगाकर सुनती हूँ तो
बहुत सी गुमशुदा आवाज़ें
मेरी पीठ को सहलाने लगती हैं
मेरे मौन में अपनी आवाज़ मिला
नए शब्द एकदम नए अर्थ लिए
मानो पहले कभी नहीं कहे सुने गए
देह का दर्द ठहर सा जाता है
मन की व्याकुलता नदी के
ठहरे शीतल जल सी
अंतस की प्यास मिटाती है
हृदय की व्यथा कथा, उदासी
हंसना रोना सब कह जाती है
मैं हवा के साथ घुलमिल
हवा हो जाती हूँ……..
©सीमा गुप्ता, पंचकूला, हरियाणा