तुम चली जाती हो…
जैसे गाँव-देहात में
लाईट
बस कुछ ही देर को आकर
फिर चली जाती है,
ठीक वैसे ही
तुम चली जाती हो।
रोशनी का भ्रम-सा होता है
और तुम चली जाती हो।
तुम दिया होती
तो ज्यादा अच्छा था,
तब तुम्हारा जाना
मेरे बस में होता।
पर तुम मेरे बस में नहीं हो,
सो चली जाती हो।
तुम पेन्सिल की तरह हो,
घिस जाती हो
तो कभी मिट जाती हो,
मैं हर बार
तुम्हें मजबूती देने को होता हूँ,
पर तुम चली जाती हो।
जैसे चाँद
बार-बार बादलों में छिप जाता है।
घण्टों..
आसमान के तारे गिनता हूँ,
इस इन्तजार में
तुम लौटोगी
पर तुम चाँद की ही तरह
बादलों से निकल कर
फिर चली जाती हो।
जब भी धूप में निकलता हूँ,
तुम हवा बनकर
लौट आती हो,
जब पसीने की बून्दे टपकती हैं,
तुम आँचल लहराती हो,
मैं मदहोश हो जाता हूँ
और जब तक होश में लौटूं,
तुम चली जाती हो।
तुम नाराज ही रहती हो अक्सर,
गुस्सा हो जाती हो,
चिड़चिड़ाने लगती हो,
मैं सोचता हूँ
आज फुरसत से मनाऊँगा तुम्हे
पर तभी तुम रूठकर चली जाती हो।
कभी-कभी लगता है,
तुम छल कर रही हो।
तुमसे अपने हर सवाल का जवाब
बस माँगने ही वाला होता हूँ,
और तुम चली जाती हो।
ना जाओ ?
©डिम्पल माहेश्वरी, जालोर, राजस्थान