बिलासपुर

वक्त ने किया क्या हंसी सितम…

✍ ■ नथमल शर्मा

वक्त तो सितम ढहाए हुए है। इस कोविड 19 ने जैसे वक्त को रोक ही तो दिया है, हालांकि जिंदगी चल रही है। वैसे ही चल रही है जैसे सांस चलती है। बरसों पहले कागज़ के फूल फिल्म में वहीदा रहमान जब श्वेत- श्याम परदे पर गा रही थी वक्त ने किया क्या हंसी सितम.. तब किसने सोचा था कि ऐसे सितम वाले दिन भी आएंगे। गीता दत्त के उस गीत को सुनते -गुनगुनाते लोग उम्र की ढलान पर है। इस कोविड 19 के कारण घरों में बंद उन्हे श्याम टाकीज में देखी ये फिल्म याद आती ही होगी। अरपा के इस लाडले शहर की वो श्याम टाकीज! बरसों पहले बंद होने के बाद अभी भी बंद है। बिक रही है एक सौदागर से दूसरे के हाथों। उस खंडहर में गूंज रहे होंगे ऐसे ही कई गीत। गूंजती होगी पृथ्वीराज़ कपूर की भी रौबदार आवाज़। अपना पृथ्वी थियेटर लेकर आए थे वे बिलासपुर और इसी टाकीज में नाटक खेला था उन्होंने। अपने शहर में आज तो सबकुछ बंद है।

हालांकि वे दिन थे जब अपने शहर में (सभी शहरों में ) सबसे शानदार जगह टाकीजें ही हुआ करती थी। मनोहर , लक्ष्मी, श्याम,और प्रताप टाकीज। उन दिनों भी शुक्रवार को ही नई फिल्म रिलीज़ होती। लोग टूट पड़ते। फिर बिहारी टाकीज खुली और फिर शिव और सत्यम भी। कुछ बरस बाद सिद्धार्थ और बलराम बनी। सबसे आखिर में जीत टाकीज। भले ही सबसे आखिर में खुली पर सबसे अच्छी टाकीज यही कहलाई। मज़ाल है कि एक तिनका भी कहीं दिख जाए। इतनी साफ़। छात्र नेता रहे मुंशीराम ने शुरू की थी जीत टाकीज। रौब तो था ही पर सफ़ाई का जुनून था। पर अपने बिलासपुर के अलमस्त लोग कहां मानते ? उधर मुंशीराम की तो धुन। एक दिन एक बड़े घर के बेटे ने(जो आज बहुत बड़ा है) पान की पीक थूक दी। चौकन्ने मुंशीराम की नज़र पड़ी। उस युवा रईसजादे की शर्ट उतरवाकर उसी से साफ़ करवाया। खूब चर्चा हुई पर मुंशीराम से कौन कहे ।आज उसे व और अन्य लोगों को भी घर में बंद रहते हुए याद आती ही होगी।

कोविड 19 में इन दिनों सब घरों में बंद है। आज तक ऐसा नहीं हुआ कि एक माह तक घरों में ही रहना पड़े। पर रह रहे हैं क्योंकि और कोई विकल्प भी नहीं। बंद पड़ी मनोहर टाकीज भी अपने उन दिनों को याद करती ही होगी जब यहां रौनक हुआ करती थी। मालगुजार शेष परिवार की इस बिल्डिंग को शिवाजी जाधव चलाते थे। बबनराव शेष उन दिनों जनसंघ से पार्षद हुआ करते। तब वार्ड मेंबर भी कहा जाता। बबनराव जी की बड़ी प्रतिष्ठा थी। उनकी इस टाकीज को चलाते तो जाधव थे पर लोग ज्यादा जानते थे रमाशंकर तिवारी को। सांवले, ऊंचे पूरे तिवारी जी इस टाकीज के मैनेजर रहे। उन दिनों केऔर लोगों की तरह पान, तंबाकू के शौकीन तिवारी जी लंबे समय मनोहर टाकीज से जुड़े रहे। वे कांग्रेस से पार्षद भी बने। बेहद लोकप्रिय रहे रमाशंकर जी बिलासपुर के उन शुरुआती लोगों में से भी हैं जिन्हें शेयर मार्केट की जबरदस्त समझ थी। पिंकी यानी प्रियनाथ तिवारी के पिता रमाशंकर जी का उन दिनों बड़ा नाम था। मनोहर टाकीज के लिए भी लोग उन्हें ही तो ज्यादा जानते थे। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का कार्यालय इसी परिसर में है। बरसों हो गए मनोहर टाकीज को बंद हुए ।वहां कुछ दुकानें खुल गई है तो सामने खुली जगह में लोग गाड़ियां पार्क करते हैं। सौदागरों की नज़र में है ये भी। पास में ही थी श्याम टाकीज। छितानी मितानी दुबे परिवार की इस टाकीज को कई बरस तो नादम परिवार चलाते रहा ।हनुमंत नादम इसके मुखिया। कुछ साल अशोक राव(प्रथम महापौर) भी चलाए। फिर जबलपुर के दुबे जी ने ले लिया। दुबे जी अपना ज्यादा समय श्याम में ही बिताते। कोविड 19 में सब बंद है पर वे दिन भी क्या दिन थे। दिन तो लक्ष्मी टाकीज के भी थे। चंद्रकांत चावड़ा आए थे बिलासपुर। दो भाई खुद और महेश। इन्होंने शुरू की लक्ष्मी टाकीज। बरसों तक चलाते रहे। महेश पहले तो ये बाद में नागपुर चले गए। इधर अरपा के किनारे खुली प्रताप टाकीज। जमींदार प्रताप राव की इस टाकीज को जाजोदिया परिवार चलाते रहा। आज यह भी बंद है और इसमें एक अस्पताल चलता है।

उन दिनों प्रताप टाकीज के ही गेट के पास साहित्य भंडार नाम की दूकान हुआ करती थी। और चार कदम पर ही बाजपेयी बाड़ा जिसमें अशोक राव , सत्यदेव दुबे जैसे दिग्गजों की नियमित बैठक हुआ करती। फिल्मों की अपार लोकप्रियता के दिन थे वे। इसीलिए और टाकीजें खुलीं। मदिरा व्यवसाय से धन नाम कमाए बिहारी लाल जायसवाल ने बिहारी टाकीज बनवाई। उन्हीं के रिश्तेदारों ने फिर बाजू में ही गंगाश्री टाकीज शुरू की। तब तक अशोक राव भी इस व्यवसाय को समझ चुके थे और उन्होंने लिंक रोड़ पर सत्यम टाकीज बनवाई। इस टाकीज के बनने के बाद वह चौक ही सत्यम चौक हो गया जो पहले चंद्रिका चौक (चंद्रिका होटल के कारण ) कहलाता। सत्यम में बाबा राव यानी ई. रमेन्द्र राव बैठते। दुनिया भर की तथ्य पूर्ण जानकारी रखने वाले बाबा राव के पास राजनीतिक और सामाजिक लोगों का जमावड़ा होने लगा। राम बाबू सोनथलिया, श्याम अग्रवाल, राधे भूत, अनिल टाह, अशोक अग्रवाल, फिरोज कुरैशी आदि अक्सर जुटते।

शुरू में वीसी शुक्ल गुट तो फिर बाद में अर्जुन सिंह गुट का केंद्र हुआ करता ये। बाबा राव पार्षद टिकट नहीं पा सके पर आगे चलकर उनकी पत्नी वाणी राव महापौर बनीं। खैर ये सब फिर कभी। अभी तो सत्यम टाकीज की भी बात और इसके साथ ही शिव टाकीज की भी। ज्वेलर्स परिवार के दिनेश गुप्ता ने शिव टाकीज बनवाई। फिर बाजू में ही अपने बेटे सिद्धार्थ के नाम से सिद्धार्थ टाकीज। इसी शिव टाकीज में मुंशीराम मैनेजर रहे। हालांकि लोग उन्हें ही मालिक मानते थे। फिर इन्होने अपनी जीत टाकीज बनवाई। बलराम टाकीज की बात जरा अलग है जिसे महापौर और फिर विधायक रहे बलराम सिंह ने बनवाया। अपने नाम पर ही टाकीज का नाम रखा। इस टाकीज के खुलने के बाद हम एक मामले में रायपुर से आगे हो गए। रायपुर के कारण हमारा हमेशा ही नुकसान होते रहा और हर चीज़ को लड़कर लेना पड़ा। पर अब बिलासपुर में दस टाकीज हो गई। रायपुर में आठ ही। बलराम सिंह भी अपने नाम की टाकीज को ज्यादा नहीं चला पाए। शायद रूचि भी कम ही थी। आज इस टाकीज के बिलकुल बाजू में उनके बड़े बेटे आशीष और बहू रश्मि सिंह रहतीं है। जो तखतपुर से विधायक है ।संयोग ही है कि टाकीजों से जुड़े लोग राजनीतिक पदों तक भी पहुंचे। रमाशंकर तिवारी, बबनराव शेष, अशोक राव, बलराम सिंह,मुंशीराम, वाणी राव आदि।

 वे भी क्या दिन थे। कोविड 19 में सूनसान हुए शहर में लोग घरों में बैठ कर कभी इनकी बात भी कर ही रहे होंगे। हर टाकीज के पास अलग ही रौनक। मसें भीगते- भीगते हर युवा की पसंदीदा जगह भी। उन दिनों भी तो शुरूआती दिनों में कुछ ज्यादा ही धड़कते थे दिल। ऐसे दिल वालों और वालियों की पसंद की जगह ये टाकीजें। बात तो होती नहीं बस देखा- देखी हो जाती और फिर फिल्म की रीलों में पर्दे पर खुद को देखते हुए लौट जाते। परिवार सहित फिल्म जाने के दिन नहीं थे वे। अरपावासी तो बिलकुल इजाज़त नहीं देते। भाग कर यानी घर में बिना बताए फिल्म देखने के दिन। कभी-कभी तो दोनों या तीनों भाई भाग कर फिल्म देखने आते। इंटरवल में दिख ही जाते और चोर -चोर सगे भाई (मौसेरे नहीं ) बनकर फल्ली खाते हुए लौट जाते। ये राज़ कभी नहीं खुलता घर में। फिल्म छूटने के बाद वहीं फिल्मी गीतों की किताबें बिका करती दस पंद्रह पैसे में। साधारण कागज़ पर अभी देखी गई फिल्म के सभी गाने छपे होते। कई बार मुफ्त में भी बंट जाती। फिल्में जैसे जिंदगी का हिस्सा थीं।

टाकीजों में फिल्म शुरू होने से पहले आरती होती। श्याम टाकीज में ओम् जय जगदीश हरे तो बाकी में भी अलग-अलग। अब तो सब कुछ ऑनलाइन। उस समय लंबी-लंबी लाइन में लग कर टिकट लेना। कई बार तो एक साथ चार पांच लोग हाथ डाल देते खिड़की में और फिर टिकट व बाकी पैसे लेकर बंद मुट्ठी को पूरी ताकत से निकालते। टिकट ले लिया जैसे युद्ध जीत लिया। कुछ खास दर्शक भी होते जो लगातार टिप्पणियां करते रहते। और जब चलती फिल्म में लाइट गोल हो जाए तो ऐसा शोर मचता कि पूछो मत। इंटरवल में फल्ली खाना और फिर अंधेरा होते ही उस खाली कोन को जहाज़ बनाकर उड़ा देना। महिलाओं की सीटें अलग होती जो पीछे होती। किसी का जहाज़ वहां तक भी पहुँच जाता।

आज के इस सूनसान शहर में पुलिस और पत्रकार साथी ही घूम रहे हैं। उन्हीं की गाड़ियों का शोर है। उन दिनों तो बहुत शोर हुआ करता था सड़कों पर। उसी के बीच एक रिक्शा गुज़रता जिसमें लाउडस्पीकर बंधा होता और फिल्म का एक छोटा सा बोर्ड लगा होता। रिक्शे में बैठा एक व्यक्ति हाथ में माइक लिए घोषणा करते रहता कि कौन सी फिल्म लगी है। कलाकारों यानी हीरो हीरोइन के नाम भी बोलता। कभी हेंडबिल भी बांटता। शहर की कुछ दीवारों पर फिल्म के पोस्टर चिपके होते। टाकीजों ने जैसे बिना कहे दीवारें बांट ली थी कोई दूसरे के पोस्टर नहीं निकालता। कई बार ऐसा हो भी जाता कि सत्यम का पोस्टर फाड़ कर शिव वाले ने उस पर अपनी फिल्म का पोस्टर चिपका दिया। स्वामिभक्ति उस समय भी थी और अति उत्साही कर्मचारी ऐसा करते रहते। टाकीजों में एक दो होटल और पान ठेले होते ही। फर्स्ट क्लास, सेकंड और थर्ड क्लास होती। महिला क्लास अलग और बालकनी भी। फिर कहीं कहीं बालकनी में ही बॉक्स भी। प्रताप टाकीज में बालकनी में कुछ आराम कुर्सियाँ भी थी। फिर हटा दी गई ।सेकंड, थर्ड क्लास में कुर्सियां नहीं। लंबी-लंबी पटिया होती या कांक्रीट सीमेंट की लंबी बेंच। बड़े लोग बालकनी में जाते। हालांकि इंटरवल में वे भी वही फल्ली खाते।

ये सब तो कोविड 19 के बहुत पहले से ही खत्म हो गया। बंद हो गई टाकीजों से गेटकीपर , टिकट क्लर्क, ऑपरेटर आदि सब बेरोजगार हो गए। लड़ने लगे जिंदगी की जंग। इसी बीच मॉल आ गए। इंटरवल इनमें भी होता है पर यहाँ लोग फल्ली नहीं खाते। दो रूपये की मूमफल्ली के बजाय दो सौ रुपये के भुट्टे के दाने लेते हैं। तीन चार लोग हुए तो पांच सौ वाला कार्न फ्लेक्स लेते हैं। कोई किसी से बात नहीं करता। यहां सभी अपने अपने में मस्त। कोविड 19 में ये भी बंद है हालांकि इसका खुले रहना भी किसी को खास पसंद तो आता नहीं। इसमें फिल्म देखने का वो रोमांच ही नहीं। भव्यता में संवेदनाएं जैसे ख़त्म ही तो हो गई। इस भयावह समय में जूझ रहे हैं सब जिंदगी से , जिंदगी के लिए। मॉल की तरह ही तो चमचमाते लेकिन संवेदनहीन हो चले हैं जैसे हम सब। अरपा में पानी आए तो शायद कुछ नमी आए हमारी आंखों में भी। बंद टाकीज में गूंज रहा है – वक्त ने किया क्या हंसी सितम …।

–लेखक देशबंधु के पूर्व संपादक एवं वर्तमान में दैनिक इवनिंग टाइम्स के प्रधान संपादक हैं।

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