लेखक की कलम से

गुनाह पासपोर्ट का था, दरबदर राशन कार्ड हो गया …

 

आह! कितने मार्मिक शब्द… वर्तमान में देश की परिस्थिति को महज चंद शब्दों में बयां कर गई ये पंक्तियां…।

 

“ऐश्वर्य की आस में बस गए जो देश परदेस,

आपात काल में याद आया उन्हें निज देश ।”

 

एक सवाल है- क्या आप भोजन कर पा रहे हैं टीवी देखने के बाद भी..!! कलेजा फटता नहीं… आंसू की धारा बहती नहीं.. मन कचोटता नहीं… तड़पता नहीं… बिलखता नहीं…??

 

हज़ारों गरीब-मजदूर छोटे- छोटे बच्चे, बुजुर्ग, स्त्री सब के सब भूख-प्यास से तड़पते-बिलखते पलायन कर रहे हैं। सैंकड़ों असहाय वृद्ध आश्रम, अनाथालय में निढाल बने हैं…।

वैश्विक महामारी पर भारत के बौद्धिक उदारवादियों ने आरम्भ से ही जैसे रवैये का परिचय दिया, ठीक वैसी ही अपेक्षा उनसे सदैव से ही की जाती रही थी, फिर भी अपनी आंखों से साक्षात यह देखकर कष्ट हुआ!

बौद्धिक उदारवाद ने कुछ ऐसा जतलाया जैसे यह विषाणु भोजन में कंकड़ की तरह आया, जैसे जलसे में ख़लल पड़ गया, बिसात बिछी थी, हवा ने प्यादे उलट दिए, धत्तेरे की! यह कोरोना वायरस आ गया…।

कुछ दिन इन्होंने यह रुदन किया कि भारत में महामारी चुपचाप फैल रही है, सरकार रोक नहीं पा रही, सरकार कैसे रोके, यह उन्होंने नहीं बतलाया। उन्नत से उन्नत देश इससे हार गए, यह बिजली की गति से फैलने वाला वायरस है, जंगल की आग है…! भारत जैसे देश में सरकार किस किसका हाथ पकड़े, किस किसको रोके समझाए…? उससे जो बन रहा है, कर रही है, और दुनियां देख रही है कि भारत सरकार भरसक जतन कर रही है, किंतु देश को बुद्धिमानों को नहीं दिखा… ।

 

विश्व युद्धों के बाद सबसे बड़े संकट का सामना आज दुनिया कर रही है, लोग मर रहे हैं, और मेरे देश की बौद्धिकता इसी प्रवाद-पर्व में तल्लीन है कि प्रधानमंत्री थाली बजवा रहे हैं…।

संकट जटिल है, अर्थव्यवस्था पहले ही बदहाल थी, अब तो ग्लोबल-स्लम्प सामने खड़ा है। सरकार जब बोलने के लिए सामने आती है तो हज़ार बातें सोचती है, हौसला बंधाती है, जनता में भय का संचार नहीं करती। साधारण आपदा हो तो अमले को मैदान में तैनात करे, किंतु संक्रामक महामारी में लोगों के बीच सरकार अपने कर्मचारी को किस रीति भेजे कि वह भी सुरक्षित रहे, यह भी उसको सोचना है। राहत-पैकेज की घोषणा करे तो घर में कितना आटा-दाल है, इसका अनुमान लगाकर ही बात करे। सरकार बहुत कुशल है, यह दावा मैं नहीं करती किंतु अपनी क्षमता में जो बन रहा है, कर रही है, यह विश्वास मुझको है, वही नहीं कोई भी सरकार इस समय में यही करेगी, यह थोथी राजनीति करने का अवसर नहीं है…।

किंतु भारत के बुद्धिमानों का आचरण ऐसा है कि मृत्युभोज में खाने आए हैं और रायता मज़ेदार नहीं बना, यह शिक़ायत कर रहे हैं, ठीक है भाई, निर्धन की रसोई है और उधारी का भोज है, किंतु मौक़ा-अवसर तो देखो…सहयोग नहीं कर सकते तो मौन रहने की कृपा करो… आपदा में भी कलुष का प्रदर्शन करने से बाज़ ना आए। ऐसे को जनता चुप रहकर बर्दाश्त भले कर ले, माफ़ कभी नहीं करती। इस बात का स्मरण रखिये…!

निर्वासन तो 21 दिनों का है, इन 21 दिनों में धनिक को चिंता है कि व्यापार कैसे होगा…? तो निर्धन को चिंता है कि उदरपोषण कैसे होगा…? और मध्यमार्गी को चिंता है कि समय कैसे कटेगा…?

फिर इन चिंताओं की अनेकानेक शाखा-प्रशाखाएं हैं…।

मनुष्य के साथ बड़ी बाधाएं हैं। इनमें उसके अहं की चेतना से निर्मित मनोवैज्ञानिक बाधाएं मुख्य हैं। जिजीविषा उसमें आज भी पशुओं जैसी है। जिजीविषा के स्तर पर मनुष्य और पशु समान हैं। प्राणों पर संकट हो तो मनुष्य पहले जान बचाएगा। किंतु अगर यह संकट सुदीर्घ हो जाए तो इस आत्मरक्षा की एकरसता से उसका अंत:करण भी अवरुद्ध होगा। यह बाधा पशुओं के साथ नहीं है, मनुष्य के साथ है, घर से बाहर निकलना, संसार के सहस्र उद्यम करना, नानारूप प्रयोजनों से अपने अभिमान की तुष्टि के जतन करना, प्रेम करना, पारस्परिकताओं और सामुदायिकताओं का निर्माण करना, मिलना-जुलना, घुलना-मिलना, रचनात्मकताओं और कल्पनाओं का महत्तम विस्तार करना- मनुष्य बहुत पहले ही इन आयामों को छू आया है, अब ये उसके गुणसूत्र का हिस्सा बन चुके हैं…।

यह शायद “रोलां बार्थ” ने कहा था कि आपको क्या लगता है यात्री मुक्त होता है…? नहीं, यात्री बंधक होता है… जहाज़ वास्तव में समुद्र में तैरता कारावास है, यायावर स्वयं को संसार के लिए अप्रस्तुत कर देता है। मनुष्य के कार्य-व्यवहार की व्याख्याएं ऐसी ही जटिल और बहुस्तरीय होती हैं। मसलन, मौजूदा परिप्रेक्ष्य में, आपको क्या लगता है, मनुष्य सार्वजनिकता के लिए घर से बाहर निकलता है…? यह भी सम्भव है कि शायद वह निजता की तलाश में घर से निकलता हो। कदाचित् घर में निजता मिल नहीं सकती। कवि “मलयज” ने अकारण नहीं कहा था— “घर मेरे अस्तित्व की रात है, बाहर की टूटन में  कितनी सुरक्षा है…!”

विषाणु ने समूचे विश्व के मनुष्य को घर में बंधकर रहने को विवश कर दिया है। कोई और चारा नहीं रह गया। बाहर शत्रु घात लगाए है, निष्कवच होकर निकले कि मरे…। मनुष्य का अभिमान ध्वस्त हो गया है। वह चित्त से स्वस्थ होगा तो इससे विनयी बनकर निकलेगा, वह चित्त से विकृत होगा तो इससे और कुंठित हो जाएगा। दूसरे की सम्भावना पहले से बहुत अधिक है…।

मनुष्य-जाति का इतिहास ही युद्धों, महामारियों, आपदाओं का रहा है किंतु इक्कीसवीं सदी के मनुज का पहले इससे पाला नहीं पड़ा था। बीसवीं सदी में मृत्युबोध चरम पर था। दोनों विश्व युद्ध बीसवीं सदी में हुए। एटम बम बीसवीं सदी में बनाए और गिराए गए। भयावह महामारियों और नरसंहारों की सदी रही थी वह…! युद्धों, विभाजनों, सीमारेखाओं के निर्धारणों, राष्ट्र-राज्यों के उदय की सदी। शीतयुद्ध की सदी। वियतनाम-युद्ध से उपजे क्रॉस-कल्चरिज़्म की सदी, जिसने एक भूखी, उद्धत और हताश पीढ़ी को जन्म दिया…।

और तब, 1990 का साल आया। शीतयुद्ध का अंत हुआ। भूमण्डलीकरण का आरम्भ हुआ। उपभोक्तावाद की विजय-पताका फहराई। सदियों से संतप्त मनुष्य की आत्मा ने राहत की सांस ली। दुनिया एक जलसाघर बन गई। आमोद-प्रमोद, सूचना-संसाधन, आत्मविस्मृति और सामूहिक व्यामोह- ये इस युग के प्रतिनिधि लक्षण बन गए…।

1990 के बाद जो पीढ़ी जन्मी, उसने यही सब देखा। उसका अंत:करण सर्वनाश के संदर्भों से अनभिज्ञ रहा। आज जो 25  साल का नौजवान है, वो कल्पना भी नहीं कर सकता कि 20 वीं सदी किस दौर से गुज़री थी और आज से 30 साल पहले तक वह दौर मौजूद था।

इस लेख के आरम्भ में तीन वर्गों के तीन संकट बतलाए थे। हममें से बहुतेरे उस तीसरे वर्ग में आते हैं, जिसके सामने संकट यह है कि समय कैसे कटे…? यह एक अधीर-समय है, सूचना-प्रौद्योगिकी ने अधैर्य के विषाणु को संसार में प्रसारित कर दिया है। इंटरनेट पर कही गई बात ख़ाली तीर नहीं होती, वह सहस्रों को अपनी अर्थछटा से संक्रमित करती है। 21 दिनों का निर्वासन जिस सामूहिक विक्षिप्तता को भारत जैसे देश में जन्म देगा, उसकी अभिव्यक्ति भी आरम्भ होने को ही है…।

21 दिनों के बाद सब ठीक हो जाएगा- यह आधे ख़ाली गिलास को आधा भरा बोलने वाला उत्कट आशावादी भी आज नहीं कह रहा है। मनुष्य अपने आदिम-अतीत में लौट गया है- गुफा में सिमटा हुआ, अनुकूल अवसर की प्रतीक्षा करता, अपने से बड़ी ताक़तों के समक्ष विनयी, दीन, निष्कवच…।

 कुंवर नारायण की कविता है-” अबकी लौटा तो वृहत्तर लौटूंगा”।

मनुष्य भी अगर इस आपदा से जीवन में लौटा तो वृहत्तर होकर लौटेगा…। स्वयं को प्रकृति का शास्ता और नियंता नहीं, उसका एक उपादान समझेगा…। पशुओं और पर्यावरण के प्रति प्रेम, करुणा, आश्चर्यबोध और विनयशीलता से भरेगा…। अपनी लघुता को अनुभव करेगा, लिप्साओं पर लगाम लगाएगा…।

प्रकृति ने परीक्षा ली है, अब उत्तीर्ण होकर दिखाने का ज़िम्मा मनुष्य का है…।

“मजबूरी ले गई जिन्हें अपनी माटी से दूर

कोरोना के खौफ से घर चलने को मजबूर।।

खाली हाथ आए घर से काम की तलाश में

आज फिर घर चले दो निवालों की आस में।।

बेहतर कल की आस में किए घर से पलायन

न आश्रय न कहीं ठौर है घर दूर कई योजन।।

चलता था जिनसे कार्य अहर्निश उद्योग का

चल रहे पैदल दिखा खौफ संक्रमण रोग का ।।”

विश्व का कोई भी देश एक झटके में सम्पूर्ण बंदी करने का साहस नहीं दिखा पाया था। वर्तमान अर्थतंत्र में 21 दिन की बंदी बहुत है किसी भी अर्थव्यवस्था को ध्वस्त करने के लिए…। अमेरिका जैसा देश भी पूर्ण बंदी नहीं कर सका और अब अपनी जनता को खो रहा है। इस सम्पूर्ण बंदी का भारत की अर्थव्यवस्था पर प्रतिकूल असर पड़ेगा, लेकिन जीवन बचाने के लिए ऐसा किया जाना जरूरी है…।

 

कब जगेगी जनता

लोकडाउन के सटीक मायने, नहीं समझे लोग,

सरकारें भी विफल रही, रोक न पाये लोग,

जो जहां हैं वहीं रहें, राशन पानी वहीं मिले,

दिहाड़ी को तुरन्त एहतियात, नहीं दे पाई सरकारें,

घूम रहे हैं लोग, संक्रमित दुनिया में, तोड़ सुरक्षा कवच,

न पूर्ण हो रही जांच, सड़कों पर आबादी है

विकट परिस्थितियों में, यही हाल रहा तो

कोरोना करेगा क़ोहराम, अब तक सरकार,

जो कुछ कर रही हैं वह सब प्रयास

विफल कर रहे लोग, जब फैलेगी त्राहि त्राहि

तब सरकारें भी कुछ न कर पाएगी,

न ही अस्पताल, इटली, अमेरिका की तरह

हम भी ढोते रहेंगे, लाशों का बोझ, तब हम मदद-मदद

पुकारते रहेंगे पर नहीं मिलेगी मदद, प्रकृति का कहर है

घर पर रहो सुरक्षित रहो …

लाइलाज कहर है…।

भारत सरकार ने वह कदम उठाया है जिसे कोई और देश नहीं उठा पाया। सरकार ने भारतीय ज्ञान परंपरा का पालन‌ करते हुए अर्थ और जन में से जन को चुना और विश्व को यह संदेश दिया कि जीवन महत्वपूर्ण है और हमें उसे किसी भी कीमत पर बचाना ही होगा…।

बहुत खुशनसीब हैं हम की हमें हमारे घर में लॉक डाउन किया गया है, विश्व का पहला लॉक डाउन सीता का हुआ था जब रावण ने अशोक वाटिका में उन्हें कैद किया।

एक तिनके के सहारे सीता ने वो दिन कैसे व्यतीत किए होंगे।

जहां न राम का संदेश था न कोई सुविधा।

पूरा 12 महीने यानी एक साल तक, तिनके को भाई मान कर सीता ने वो दिन निकाले ये तो 21 दिन है निकल ही जाएंगे।

धैर्य रखें…सब ठीक हो जाएगा…।

©रीमा मिश्रा, आसनसोल (पश्चिम बंगाल)

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