लेखक की कलम से

दर्द अक्सर जब मुझे …

 

दर्द अक्सर जब मुझे, पहचान लेता है।

बिन सबूतों के ही, मुजरिम मान लेता है।।

 

बात उठते ही, तो मेरे इन सवालों की।

पांव से सर तक, वो चादर तान लेता है।।

 

ये व्यवस्था ही बहुत है, जान लेने को।

ज़हर का तू किसलिए, अहसान लेता है।।

 

छोड़ जाता है निशां बरबादियों के फिर।

जलजले की शक्ल जब तूफ़ान लेता है।।

 

मंज़िलें ख़ुद चलके उसके पास आती हैं।

आदमी जब दिल में अपने, ठान लेता है।।

 

रोज़ ही करता नमन है, उस धरा को वो।

जिस ज़मीं से गेहूं, मक्का, धान लेता है।।

©कृष्ण बक्षी

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