लेखक की कलम से

मेरी कल्पना …

 

आज शाम फिर मेरी कल्पना,

मेरे कंधों पर सवार होकर,

मेरे गांव की पगडंडियों पर घूम आई।

खेतों में लहलहाते गेहूं की बालियों को छू कर,

चने के जामनी फूलों को चूम आई,

आज शाम फिर मेरी कल्पना, मेरे कंधों पर सवार होकर,

मेरे गांव की पगडंडियों पर घूम आई।

 

मेरे गांव के बेरों के पेड़ों पर,

पके बेरों को चखकर,

सरसों के पीले बसंती,

फूलों को चूम आई।

आज शाम फिर मेरी कल्पना,

मेरे कंधों पर सवार होकर,

मेरे गांव की पगडंडियों पर घूम आई।

 

मेरे गांव के खेतों के,

नीम के पेड़ के फूलों को चूम कर,

महूए के फूलों की सुगंध सूंघ आई।

आज शाम फिर मेरी कल्पना,

मेरे कंधों पर सवार होकर,

मेरे गांव की पगडंडियों पर घूम आई।

 

मेरे गांव की अमराइयों में,

आम के पेड़ों की टहनियों पर,

फुदक – फुदक कर आम के पेड़ों पर,

लगे आम के बूर की महक सूंघ आई।

आज शाम फिर मेरी कल्पना,

मेरे कंधों पर सवार होकर,

गांव की पगडंडियों पर घूम आई।

 

सेम्बल के गेरुए फूलों को निहारती हुई

अमलतास के पीले फूलों को चूम आई।

आज शाम फिर मेरी कल्पना,

एक कंधों पर सवार होकर,

मेरे गांव की पगडंडियों पर घूम आई।

 

फागुन में होली के रंगों से,

होकर सराबोर भीगती हुई,

टेसू के फूलों को चूम आई।

आज शाम फिर मेरी कल्पना,

मेरे कंधों पर सवार होकर,

मेरे गांव की पगडंडियों पर घूम आई।

 

©लक्ष्मी कल्याण डमाना, नई दिल्ली        

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